________________
ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है ? : १३
तो एक ऐसा यन्त्र तैयार किया है, जो दिन भर मानव शरीर में लगा रहता है। वह दिन में शरीर की हलचल से पैदा होने वाली विद्युत् को अपने में इतना संगृहीत कर लेता है, जिससे रात भर प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है।
दैनिक हिन्दुस्तान के १२ अक्टूबर १९६९ के अंक में लिखा है कि दक्षिणपूर्व अमेरिका की नदियों में पायी जाने वाली 'ईल' नामक मछली डेढ़ सौ अश्वशक्ति का विद्युत्-सामर्थ्य रखती है, जिसके द्वारा साठ वाट के सैकड़ों बल्ब जलाये जा सकते हैं। इस प्रकार अद्भुत विद्युत् शक्ति के धारक अन्य भी अनेक प्राणी हैं - पशु हैं, पक्षी हैं। सूरज की धूप में भी विद्युत् शक्ति है, और उस धूप द्वारा संगृहीत विद्युत् से तो पश्चिम के देशों में कितने ही कल-कारखानें चलते हैं।
स्विच ऑन होते ही एक सेकंड में बिजली का प्रकाश जगमगाने लगता है, और स्विच ऑफ होते ही एक क्षण में प्रकाश गायब हो जाता है। एक सेकंड में विद्युत् धारा हजारों ही नही, लाखों मील लम्बी यात्रा कर लेती है। क्या यह सब अग्नि का गुण धर्म एवं चमत्कार हो सकता है?
आज का युग कहने का नहीं, प्रत्यक्ष में कुछ करके दिखाने का युग है। विद्युत् अग्नि है, कहते जाइए। कहने से क्या होता है ! विज्ञान ने तो अग्नि और विद्युत् का अन्तर स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष में सिद्ध करके दिखा दिया है। पुराने युग के कुछ आचार्यों ने यदि विद्युत् की गणना अग्निकाय में की है, तो इससे क्या हो जाता है? उनका अपना एक युगानुसारी चिन्तन था, उनकी कुछ अपनी प्रचलित लोकधारणाएँ थीं। वे कोई प्रत्यक्ष सिद्ध वैज्ञानिक मान्यताएँ नहीं थीं । राजप्रश्नीय सूत्र में वायु को भारहीन माना गया है तथा बताया गया है कि हवा में वजन नहीं होता है। जबकि हवा में वजन होता है, और यह प्रत्यक्ष सिद्ध है । अन्य जैन आगमों से भी वायु में गुरुत्व सिद्ध है। अतः मानना होगा कि राजप्रश्नीयकार या केशीकुमार श्रमण केवल लोक प्रचलित मान्यता का उल्लेख मात्र कर रहे हैं, सैद्धान्तिक पक्ष का प्रतिपादन नहीं । चन्द्र, सूर्य आदि के सम्बन्ध में भी उनकी यही स्थिति है। वही बात विद्युत् को अग्नि मानने के सम्बन्ध में भी है, जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है तथा अन्य आगमों से भी सिद्ध नहीं है।
मैं आशा करता हूँ, विद्वान् मुनिराज तटस्थ भाव से उक्त चर्चा का विश्लेषण करेंगे, और विद्युत् को अग्नि मान लेने के कारण ध्वनिवर्धक का जो प्रपंच समाज में चर्चा का विषय बन गया है, इसका उचित निराकरण करेंगे। प्रवचन सभा में हजारों की भीड़ हो जाती है, सुनाई कुछ देता नहीं है। शोरगुल होता है, आकुलता बढ़ती है जनता के मन खिन्न हो जाते हैं। यह कितनी बड़ी मानसिक हिंसा है। प्रस्तुत प्रसंग में इस पर भी विचार करना आवश्यक है।
*