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संस्कृत छाया :
किञ्च। एवं स्थितेऽपि सुन्दरि! अनुकूलः कथमपि यदि विधिर्भवति ।
तदा आपदपि आवयोः परिणंस्यति सम्पत्त्वेन ।।२५।। गुजराती अनुवाद :
अने वली आम होते छते पण हे सुंदरी! जो कदाचित् भाग्य अनुकूल हशे तो आपणी आपत्ति पण संपत्ति रूपे परिणाम पामशे। हिन्दी अनुवाद :
और ऐसा होते हुए भी हे सुन्दरी! यदि भाग्य अनुकूल होगा तो हमारी आपत्ति भी सम्पत्ति के रूप में परिणित हो जाएगी। गाहा :
बलिओ हु इमो सत्तू ताव य सज्झो न पुरिसगारस्स ।
पुव्व-भव-निम्मिएहिं वारिज्जइ नवरि' पुन्नेहिं ।।२६।। संस्कृत छाया :
बलितः खल्वयं शत्रुस्तावच्च साध्यो न पुरुषकारस्य ।
पूर्वभव-निर्मितैर्वार्यते नवरि' पुण्यैः ।।२६।। गुजराती अनुवाद :
आ शत्रु नव्योवाहन बलवान छे. पुरुषार्थथी साधी शकाय तेम नथी, परंतु पूर्वधवमां करेला पुण्य वडे शीघ्र वारी शकाय छ। हिन्दी अनुवाद :
यह शत्रु नभोवाहन बलवान है, इसे पुरुषार्थ से नहीं जीता जा सकता है, बल्कि पूर्व जन्म में किए गए पुण्य के बल पर ही इसे परास्त किया जा सकता है। गाहा :
जइ ताव अस्थि पुन्नं किं कज्जं सुयणु! पुरिसगारेण? ।
अह नत्थि किंचि पुन्नं विहलो ता पुरिसगारोवि ।।२७।। संस्कृत छाया :
यदि तावदस्ति पुण्यं किं कार्यं सुतनो! पुरुषकारेण? ।
अथ नास्ति किञ्चित् पुण्यं विफलस्ततः पुरुषकारोऽपि ।। २७।। १. नवरि (देश्य-अव्यय=शीघ्र), २. सुतनो (पुरुष-संबोधन)
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