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________________ तत्त्वार्थसूत्र का पूरक ग्रन्थ : जैन सिद्धान्त-दीपिका : २३ पर नहीं, अपितु दृष्टि की सम्यक्ता पर निर्भर करती है। यथार्थबोध रूप जो लक्षण है वह 'प्रमाण' के अर्थ में मान्य सम्यग्ज्ञान के लिए उपयुक्त ठहरता है। कदाचित् दृष्टि सम्यक् नहीं होने पर भी वस्तु का संवादी-यथार्थ ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। मिथ्यात्वी उसी आधार पर वस्तु को जानते एवं स्मरण आदि करते हैं। उनका यथार्थबोध, संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित होता है, किन्तु मिथ्यात्व से रहित नहीं होता। जबकि जो मोक्षपायभूत है वह मिथ्यात्व से रहित होता है। आचार्यश्री ने प्रमाण का लक्षण 'यथार्थज्ञानं' दिया है (८.२)। दोनों स्थानों पर जो 'यथार्थ' शब्द है, इनमें क्या भेद है, उस पर विचार अपेक्षित है। यदि सम्यग्ज्ञान के लक्षण में 'सम्यग्दर्शन सति जोड़ दिया जाए तो मोक्षोपायभूत सम्यग्ज्ञान का पूर्ण लक्षण बन जाता है। २. जैन सिद्धान्त की यह विशेषता है कि इसमें सभी ज्ञानों के लक्षणों के लिए पृथक रूप से सूत्र रचे गए हैं, यथा (i) मतिज्ञान- इन्द्रियमनोनिबन्धनं मतिः । (जैन सिद्धान्त-दीपिका २.८) अर्थात् इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में भी लगभग यही लक्षण दिया गया है, यथा- तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् (तत्त्वार्थसूत्र १.१४) ___(ii) श्रुतज्ञान- द्रव्यश्रुतानुसारिपरप्रत्यायनक्षमं श्रुतम् (दीपिका २. २। द्रव्यश्रुत के अनुसार दूसरों को समझाने में समर्थज्ञान श्रुतज्ञान है। द्रव्यश्रुत का अर्थ है- शब्द, संकेत आदि। तत्त्वार्थसूत्र में इसका लक्षण- विधायक सूत्र नहीं है, किन्तु उसका मति ज्ञान पूर्वक होना कहा गया है श्रुतं मतिपूर्व.. (१.२०) (iii) अवधिज्ञान- आत्ममात्रापेक्षं रूपिद्रव्यगोचरमनवधिः। (दीपिका २. २४) इन्द्रियादि सहायता के बिना सीधे आत्मा से होने वाला रूपी द्रव्यों का ज्ञान अवधिज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में अवधिमान का लक्षण तो नहीं दिया गया, किन्तु अवधिमान के विषय का निरूपण करते हुए उसे स्पष्ट कर दिया गया है, यथा- रूपिष्ववधेः। तत्त्वार्थसूत्र १. २८ (iv) मनःपर्यायज्ञान- मनोद्रव्यपर्यायप्रकाशि मन:पर्यायः। (दीपिका २.२८) मनोद्रव्य एवं उसके पर्याय का प्रकाशक ज्ञान मनःपर्याय है। तत्त्वार्थसूत्र में इसका लक्षण न देकर उसके विषय का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि अवधिमान के विषय के अनन्तवें भाग को मनःपर्याय ज्ञान द्वारा जाना जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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