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________________ २४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक १/जनवरी-मार्च २००६ (तदनन्तभागे मन:पर्यायस्य १.२९) मन: पर्याय ज्ञान द्वारा जाना जाता है। मन भी रूपी द्रव्य है और वह समस्त रूपी द्रव्यों का अनन्तवाँ भाग है। (v) केवलज्ञान- निखिल द्रव्य पर्याय साक्षात्कारि केवलम् (दीपिका २. ३१)। समस्त द्रव्यों एवं उनकी समस्त पर्यायों का साक्षात्कारी ज्ञान केवलज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में इसके विषय की निरूपता करते हुए कहा गया है- “सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्या' (तत्त्वार्थसूत्र १. ३०) यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि जैन सिद्धान्त-दीपिका में पाँचों ज्ञानों के लक्षणों का व्यवस्थित प्रतिपादन हुआ है, तत्त्वार्थसूत्र में उसे ज्ञान के विषयनिरूपण आदि के द्वारा स्पष्ट किया गया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि- तत्त्वार्थसूत्र में जिस प्रकार श्रुतज्ञान को मतिज्ञानपूर्वक होना कहा है, उस प्रकार का कोई निर्देश दीपिका में नहीं है। यह तथ्य दीपिका में सोच विचार कर छोड़ा गया है, ऐसा प्रतीत होता है। - 'श्रुतज्ञान' के लक्षण में जो ‘परप्रत्यायत्रक्षम' विशेषण है, क्या वह एकेन्द्रियादि जीवों में प्राप्त श्रुत-अज्ञान में घटित होता है? विचारणीय है। श्रुतज्ञान दूसरे को बोध कराने के लिए होता है, इस लक्षण का क्या आधार है? श्रुतज्ञान तो स्वयं धारक का भी मार्गदर्शन करता है। ३. जैन सिद्धान्त-दीपिका में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेदों - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के लक्षणों को सूत्र में आबद्ध किया गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में इनके नामों का ही उल्लेख है, लक्षणों का नहीं। तत्त्वार्थ भाष्य में अवश्य उनके लक्षण प्रदत्त हैं, किन्तु आचार्य श्री तुलसी जी के द्वारा प्रदत्त लक्षण विशेषावश्यक भाष्य एवं प्रमाण शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रदत्त लक्षणों से प्रभावित हैं, तत्त्वार्थभाष्य से नहीं। दीपिका में प्रदत्त लक्षण इस प्रकार हैं (i) अवग्रह- इन्दियार्थयोगे दर्शनान्तरं सामान्यग्रहण्ण्मवग्रहः। (दीपिका २.११) इन्द्रिय एवं पदार्थ का संयोग होने पर दर्शन के पश्चात् जो सामान्य का ग्रहण होता है, वह अवग्रह है। यहाँ पर यह विचारणीय है कि अवग्रह एक ज्ञान है। ज्ञान 'विशेष' का ग्राहक होता है और दर्शन सामान्य का। उपर्युक्त लक्षण से (दर्शन और अवग्रह) में जो भेद है, वह पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता। आचार्यश्री ने ज्ञान को पर्याय का एवं दर्शन को ध्रौव्य (द्रव्य) का ग्राहक प्रतिपादित किया है। (२.५-६) ध्रौव्य सामान्य होता है एवं पर्याय विशेष होती है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि वाचक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525057
Book TitleSramana 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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