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________________ ९२ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ पतिदर्शन के लिए कलावती नाम की स्त्री चली गयी। इस से क्रुद्ध हो कर भगवान् सत्यनारायण ने उसके पति को अदृश्य कर दिया। फिर प्रसाद खा कर ही उसे पतिदर्शन हुए। संदर्भ - स्कन्दपुराण, रेवाखण्ड, सत्यनारायणव्रतकथा, अध्याय ४1 २४. कम प्रकाशमें भोजन करने से अन्न में कृमि-कीट गिर सकते हैं। इस प्रकार असावधानी से जीवहिंसा होने की संभावना है। इसीलिए श्रावकाचार में रात्रिभोजन निषिद्ध माना गया। यदि पर्याप्त प्रकाश की सुविधा हो तो रात्रिभोजन में कोई दोष नहीं है। कुछ कन्द-मूलों का निषेध भी तर्क संगत नहीं लगता। अनाज के प्रत्येक दाने से एक पौधा उग सकता है। अत: हर व्यक्ति भोजन के संदर्भ में कई पौधों को मजबूरन मारता ही है। इसकी तुलना में कन्द मूल खाने से कोई अधिक हिंसा नहीं होती। वस्तुत: कोई जीवों को मारने के उद्देश्य से भोजन नहीं करता। अर्थात् इस में चित्तवृत्ति का प्रमाद नहीं है। अत: श्रावक के लिए कंद-मूल खाने का निषेध तर्कसंगत नहीं लगता। फिर भी ऐसी निषिद्ध वस्तुएं खाते समय यदि मन में हिंसा का भाव आता हो तो उन्हें त्याग देना ही श्रेयस्कर है। इस संदर्भ में बृहस्पतिस्मृति का यह श्लोक मार्गदर्शक है। "केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्त्तव्यो विनिर्णयः। युक्तिहीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते।" शास्त्रों पर युक्तिसंगत विचार करना तथा बदलते समय के अनुसार आचार में यथायोग्य परिवर्तन करना पाप नहीं है। २५. सामाजिक विकास के साथ-साथ नयी दष्प्रवृत्तियों का उदय होता है। कई अतिचार शासनाधीन कानून की कमजोरियों के कारण होते हैं। समाज के विकास के साथ कुछ अचिंतित पापवृत्तियों के नये अवसर पैदा होते हैं। ऐसी स्थिति में परंपरागत आचार नियमों का विस्तार करना आवश्यक होता है। आचार्य श्री तुलसीजी का पूरे जैन समुदाय में ही नहीं, अन्य धार्मिक समाजों में भी बड़े आदर का स्थान है। उन्होंने आधुनिक समाज की स्थिति देख कर कुछ नये श्रावक व्रतों का समर्थन किया है। इन में प्रमुख हैं- पर्यावरण प्रदूषण न करना, व्यवसाय के क्षेत्र में पूर्ण ईमानदारी बरतना तथा चुनाव के संदर्भ में गैरकानूनी मार्ग न अपनाना। इन के कृत, कारित एवं अनुमत अतिचार रुकने से पूरे समाज का हित होगा। श्रावकाचार के इस विस्तार से जैन दर्शन की प्रासंगिकता बढ़ती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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