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________________ जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श : ९१ स्वयं के लिए नहीं अपितु व्यापार में मुनाफा कमाने के लिए किया जाता है। अत: यह अस्तेय व्रत का अतिचार है, अपरिग्रह व्रत का नहीं। १६.अपरिग्रह व्रत के अतिचार का वर्णन करने वाला श्लोक इस कथन की पुष्टि करता है - अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि। परिमितपरिग्रहस्य, विक्षेपाः पंच लक्ष्यन्ते। रत्नकरंडश्रावकाचार, श्लो० ६२, संदर्भ टिप्पणी ६ में। १७. यह व्यवस्था तर्कशुद्ध लगती है। पांच अणुव्रत पापकर्मों से विरति के रूप में निर्दिष्ट हैं। सल्लेखना कुछ भिन्न प्रकार का व्रत है। जीवन कोई पापकर्म नहीं; अत: स्वेच्छा से जीवन का समापन पापविरति नहीं है। स्वेच्छा से अपनाया नियम - व्रत शब्द के इस अर्थ में सल्लेखना व्रत है। १८. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखना माचार्याः।। रत्नकरंडश्रावकाचार, श्लो० १२२; संदर्भ टिप्पणी ६ में। १९.Ram Bhushan Prasad Singh, Jainism in Early Mediaeval Karnataka, Motilal Banarsidass, Delhi 1975 A.D., pp. 61-69. २०.इस विषय में उदासीनता के दो प्रमुख कारण हैं। असहनीय दर्द के कारण प्राणत्याग करने का निर्धार क्षणिक है और जीने की इच्छा ही सामान्य रूप से प्रबल होती है। अत: असहायता की स्थिति में किया हुआ निर्धार प्रामाणिक मान कर किसी के जीवन का अंत करना पाप है। इस चिंता का निवारण हो सकता. है। यदि कोई युवावस्था में तथा अच्छे स्वास्थ्य की हालत में अपने निर्धार का पंजीकरण करे और एक-दो साल के बाद पुन: उसका दृढ़ीकरण करे तो उसे सोच समझ कर किया हुआ निर्धार मानने में कोई दोष नहीं। ऐसी स्थिति में उस की प्रामाणिक इच्छा का सम्मान करना ही समाज तथा शासन का कर्तव्य है। दूसरा कारण यह है कि इस कानूनी छूट का दुरुपयोग हो सकता है। परंतु यह दलील भी ठीक नहीं। यथायोग्य कानूनी प्रावधान करने पर दुरुपयोग नहीं होगा। सामाजिक जागरूकता बढ़ाने से भी कानून का दुरुपयोग नहीं होगा। २१.R. Williams, Jaina Yoga : A Survey of the Mediaeval Sravakacaras, Motilal Banarsidass, Delhi 1983 A.D., p 216. २२.Lawrence A. Babb, Ascetics and Kings in a Jaina Ritual Culture, Motilal Banarsidass, Delhi 1998 A.D. २३. वैदिक परंपरा में ईश्वर को समर्पित खाद्य पदार्थ प्रसाद के रूप में भक्त लोग सेवन करते हैं। प्रसाद न लेना ईश्वर का अपमान माना जाता है। सत्यनाराणव्रतकथा में कहा गया है कि पूजा करने के पश्चात् जल्दबाजी में प्रसाद लेना भूल कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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