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________________ जैन-दर्शन की द्रव्य दृष्टि एवं पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का पारस्परिक सम्बन्ध : ३ कणों तथा अन्यान्य भौतिक पदार्थों में भी 'जीवाण' पाये जाते हैं। यद्यपि सभी जीव समान प्रकार से चेतन नहीं हैं; तथापि 'स्थावर' और 'अजीव' द्रव्यों के अभाव में मानव जीवन 'आकाश-पुष्प' की भाँति होगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जैन धर्म ने कम से कम २५०० वर्ष पूर्व ही वनस्पति जगत् में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर दिया था आज विज्ञान ने उसे पुष्ट कर दिया है। आचारांग, सूत्रकृतांग, दश वैकालिक, मूलाचार, भगवती आराधना आदि समस्त जैन ग्रंथों में षड्कायिक जीवों की हिंसा से विरत रहने का उपदेश दिया गया है। जैन-दर्शन की 'द्रव्य-दृष्टि' और 'पर्यावरणीय नीतिशास्त्र' में गहरा सम्बन्ध है, पर्यावरणीय नीतिशास्त्र समाजशास्त्र से जुड़ा हुआ है और समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नृतत्व विज्ञान, शिक्षा शास्त्र, इतिहास दर्शन आदि विषयों से घनिष्ठता से सम्बद्ध है। पर्यावरणीय अध्ययन समाज द्वारा प्रस्थापित सामाजिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों, परम्पराओं, अभिकरणों एवं संस्थाओं के विकास, उनकी उपादेयता तथा पविर्तनशील परिस्थितियों में उनकी गत्यात्मकता को बनाये रखने की आवश्यकता को समझने में सहयोग देता है। इसीलिए पर्यावरणीय विज्ञान को पारिस्थितिकी विज्ञान भी कहा जाता है। पारिस्थितिक तन्त्र के दो महत्त्वपूर्ण घटक हैं - जैविक एवं अजैविक। जैविक संसाधनों में पेड़-पौधों और जीव जन्तु आते हैं तथा अजैविक तत्त्वों में जल संसाधन, वायवीय संसाधन, भूमि सम्पदा संसाधन आदि को लिया जाता है। दोनों का संतुलन पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से परम आवश्यक है। जैविक वैविध्य का पारिस्थितिक तन्त्र में बना रहना धारणीय विकास के लिए अपरिहार्य है। जैनाचार्यों ने 'परस्परोपग्रहो जीवनाम्, का घोष देकर अहिंसा और संयम का सिद्धांत दिया जो पर्यावरणीय नीतिशास्त्र की रीढ़ है। वस्तुत: पर्यावरणीय नीतिशास्त्र मनुष्य के स्वविवेकानुसार 'कर्तव्य-बोध' पर प्रकाश डालता है। जैनाचार पर्यावरण का मुख्य संरक्षक है। 'कर्तव्य-पालन' के लिए आवश्यक है कि कार्यों में चुनाव करने की स्वतन्त्रता हो। काण्ट के शब्दों में "तुम कर सकते हो; इसलिए तुम्हें करना चाहिए।'' ध्यातव्य है कि पर्यावरण के अन्य 'अवयव' नियम के अधीन चलते हैं। मनुष्य आदर्श (Norm) का चिंतन करता है और चाहे तो उसके अनुकूल कर सकता है और चाहे तो उसके प्रतिकूल। लेकिन 'कृतप्रणाश' (जैसा करो वैसा भरो) का सिद्धान्त कर्ता के साथ 'पर्यावरण' को भी प्रभावित करता है; क्योंकि अनुचित आचरण के अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव न केवल आचरणकर्ता पर, बल्कि सम्बद्ध अनेक व्यक्तियों पर, पास-पड़ोसियों पर तथा परिवार पर भी पड़ता है। उदाहरणार्थ 'शराबी' व्यक्ति के आचरण का प्रभाव न केवल उसके स्वयं पर, बल्कि उसके परिवार के सदस्यों पर, मित्रों पर तथा अन्य आत्मीय बन्धुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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