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________________ २ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ का जल बादल का विकार होने पर स्वतः ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार (अग्नि भी सजीव है; क्योंकि पुरुष के अंग की भाँति आहार आदि के ग्रहण करने से (जठराग्नि) उसमें वृद्धि होती है। वायु को भी सजीव मानना युक्ति संगत प्रतीत होता है; क्योंकि गौ के समान वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करता है। वनस्पतियों की सजीवता के तो अनेकों प्रमाण हैं। ध्यातव्य है कि 'त्रस जीवों' में 'स्थावर जीवों' की अपेक्षा चेतना की अधिक अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार जैन-दर्शन में ‘त्रस तथा स्थावर' जीवों के बहुसंख्यक अस्तिकाय ‘षड्द्रव्यों' की 'सजीवता' का गंभीर अनुशीलन किया गया है। जो मनुष्य को यह बोध भी कराता है कि उसका अस्तित्व 'स्थावर जीव' द्रव्यों के सम्यक् सहयोग पर भी निर्भर है। जैन-दर्शन के अनुसार 'जीव द्रव्य' का साधारणत: ज्ञात अस्तित्व द्विविध है जिसमें जीव तथा अजीव दोनों ही तत्त्व अनुस्यूत हैं। अत: 'जीव द्रव्य' के पश्चात् 'अजीव द्रव्य' का विवेचन प्रासंगिक हो जाता है। अजीव का निवास स्थान यह संसार है। यह अजीव द्रव्यों से निर्मित है। उनमें से कुछ अजीव द्रव्य तो शरीर धारण करते हैं; जिन्हें 'अस्तिकाय' (देश में रहने वाला) कहा जाता है; जैसे - धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल। और कुछ बाह्य परिस्थितियों का निर्माण करते हैं; जो आकार न धारण करने के कारण 'अनस्तिकाय अजीव द्रव्य' कहलाते हैं - जैसे - 'काल' जैन-दर्शन में 'जड़तत्त्व' को पुद्गल बतलाया गया है। जिसमें विभाग और संयोग हो सके वह पुद्गल है। मनुष्य के मन,वचन और प्राण पुद्गलों से ही निर्मित हैं। पुद्गल वर्ण, रस, गंध, स्पर्श से युक्त होते हैं। अन्य अजीव द्रव्यों में ये गुण नहीं पाये जाते हैं। __ जीव, धर्म, काल, पद्गल आदि द्रव्यों की स्थिति आकाश के अन्तर्गत मानी गयी है। आकाश के अभाव में इन द्रव्यों की न तो स्थिति संभव है और न विस्तार ही। इसलिए कहा जाता है कि द्रव्य आकाश को व्याप्त करता है और 'आकाश' 'द्रव्य' द्वारा व्याप्त होता है। अस्तिकाय द्रव्यों की अवस्था परिवर्तन या परिणाम निरवयव अनस्तिकाय 'काल' के अन्तर्गत ही सम्पन्न होता है। जैन-दर्शन में 'धर्म' और 'अधर्म' को परम्परागत 'पुण्य' और 'पाप' के अर्थ में ग्रहण न करके 'गति' और 'विश्राम' के अर्थ में स्वीकार किया गया है; जो त्रस जीवों के अस्तित्व के लिए स्थावर जीवों के माध्यम से सहायक बनते हैं। ध्यातत्व है कि जैन-दर्शन की 'द्रव्य-दृष्टि' में केवल मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों में ही जीवन नहीं है; वरन पेड़-पौधों तथा धूल-कणों में भी जीवन है; जिससे उनका 'द्रव्य' अनुशीलन आज भी प्रासंगिक है; क्योंकि आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी धूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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