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________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ शुष्क, निर्जीव और अग्निपक्व अचित्त वनस्पतियों की अपेक्षा अधिक सदोष हैं। पर संसार में प्राणियों में केवल धर्म-संज्ञा ही नहीं होती, उनमें आहार, निद्रा, भय, मैथुन और आवेगों की संज्ञायें भी होती हैं। इनके लिये आवश्यक स्वस्थवृत्त भी धार्मिक दृष्टि से स्वीकृत होना चाहिये। इन संज्ञाओं के कारण भी अनेक प्रकार की अनिवार्य हिंसा होती है। इसी प्रकार, कृषि, व्यवसाय, शिल्प आदि में भी हिंसा के अनेक रूप अनिवार्यतः समाहित होते हैं। इस प्रकार की हिंसा, कंद-मूल-भक्षणजन्य हिंसा की तुलना में पर्याप्त बहुमानी होती है। वस्तुत: साधारण वनस्पतियों की दो कोटियां हैं : १. शर्करा या कार्बोहाइड्रेटी (धान्यों के समान आलू, धुइयां और कंद आदि) और २. अ-शर्करीय (हल्दी, अदरख आदि)। इनमें से अधिकांश का रासायनिक संघटन ज्ञात हो चुका है। इनमें शाकों की अपेक्षा जलांश कम होता है। इनकी खाद्य-घटकीयता बहुमूल्य है। प्रथम कोटि के पदार्थों में सुपाच्य शर्करायें होती है जो स्वास्थ्य-लाभ में सहायक होती हैं और दूसरी कोटि में रोग-प्रतिकार-क्षमता तथा क्षारतत्त्व के घटक होते हैं। इसीलिये प्राचीन ग्रंथों में इन्हें साधुओं के लिये भी अग्निपक्व-कर खाने का उल्लेख है। यह भी विचारणीय है कि भगवती २३.१ में साधारण वनस्पतियों की उत्कृष्ट एवं जघन्य आयु मात्र अंतर्मुहूत ही बताई है। इससे क्या यह फलित होता है कि वे अंतर्मुहुर्त के बाद प्रत्येक वनस्पति के रूप में परिवर्तित हो जाते होंगे? यह उनके बहुकोशिकीय रूप ग्रहण करने से ही संभव है। इसमें अनेक कोशिकाओं के तिल-पपड़ी में तिलों या लड्ड में कणों के बंध के समान श्लेष होने में पर्याप्त ऊर्जा व्ययित होती है, फलत: इनकी प्रतिकोशिका प्राणशक्ति कम हो जाती है। इसीलिये संभवत: प्रज्ञापना १.४९ में अनेक पत्तेवाली भाजियां व मूली आदि प्रत्येक वनस्पति में गिनायी गयी हैं।१८ ___जीवों की कोशिकीय संरचना के आधार पर वनस्पतियों का प्रत्येक एवं साधारण रूप में वर्गीकरण अब एक ऐतिहासिक तथ्य है।१९ दोनों प्रकार के बादर वनस्पति बहुकोशिकीय पाये गये हैं जो अपने विकास के समय नित्य नई कोशिकाओं का सर्जन एवं विनाशन करते रहते हैं। अनंतकायिक को बहुकोशिकीय वनस्पति मानने पर उनसे संबंधित धार्मिक एवं भक्ष्याभक्ष्य संबंधी समस्यायें भी पर्याप्त समाधान पा सकती हैं। कंद-मूलों की अभक्ष्यता के तर्कों की समीक्षा अनेक जैन वनस्पतिशास्त्री यह मानते हैं कि साधारण वनस्पति के कच्चे या अग्निपक्व आहरण में धार्मिक दृष्टि से निम्न दोष हैं२०, २१ : अ. भूमिगत कंदों को उखाड़ने के कारण पौधे का जीवन-चक्र पूर्ण नहीं हो पाता है और वह नष्ट हो जाता है। इससे उसके अवयवी जीवों या कोशिकाओं की हिंसा होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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