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________________ वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : ३९ ब. भूमिगत कंद-मूलों को उखाड़ने पर उनसे भूमि में चहुं ओर संपति सूक्ष्म जीवों का जीवन-चक्र भी नष्ट हो जाता है। स. कंद-मूलों में सांद्रित जीवन होता है। द. भूमिगत कंद-मूलों को आहरण के लिये उखाड़ने पर भूमिगत और भूमितलीय पर्यावरण संतुलन प्रभावित होता है। इ. धार्मिक ग्रंथों में कंद-मूलों का आहरण अनिंदित नहीं है। (अ) यह सुज्ञात है कि भूमितलीय पौधे, फल एवं शाक भी हम प्राय: कच्चे या अग्निपक्व ही खाते हैं। इनकी पूर्ण-पक्वता इनके सूखने के समय ही आती है जब वे प्राय: अखाद्य और अरुचिकर हो जाते हैं। ककड़ी, कुम्हड़ा, परवल, भिंडी आदि सभी बह-बीजक कौन पूर्ण-पक्व होने पर खाता है? बहु-बीजकीय अभक्ष्यता के साथ क्या प्रत्येक शरीरी वनस्पति सचित्त नहीं होते? क्या इनकी जीव-कोशिकीय रचना के आधार पर इनके आहरण में बहु-घात नहीं होता? भूतल पर भी इनको मूल पौधों से तोड़ने और खाने में एक या अनेक पौधों का जीवन चक्र नष्ट होता है। इनमें भी अगणित एकेंद्रिय सूक्ष्म कोशिकायें होती हैं। हां, इनमें सामान्यत: न तो त्रसजीव होते हैं और न ही ये मद्य, भांग आदि के समान कोई हानि उत्पन्न करते हैं। अत: इन्हें भी क्यों न अभक्ष्य माना जावे? हां, कुछ लोग इन्हें कच्चा तोड़कर सुखाते हैं और फिर सूखे की ही सब्जी खाते हैं। पर इसमें भी सुखाने से जीवन चक्र तो नष्ट होता ही है। भूमिगत तनों के रूप में उपलब्ध कंद-मूलों को भी लोग खाने योग्य या समुचित पक्व होने पर ही भूमितलीय फल-फूलों के समान सचित्त या अचित्त अवस्था में खाते हैं। फलत: उनके आहरण में दोष मानना समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि ये भी कोशिकीय ही होते हैं। इस मत का समर्थन अनेक जैव वनस्पति शास्त्रियों ने किया है। रही बात, अधिक स्थावर हिंसा की, सो सामान्य जन सूक्ष्म हिंसा के त्यागी नहीं होते और ये आहार के अल्पमात्रिक घटक हैं। अनेक कंद-मूल तो विशेष परिस्थितियों में ही ख़ाये जाते हैं। फलत: इनके आहरण में भी हिंसा अल्प ही होती है। फलत: बहुघात का दोष उचित नहीं है। (ब) कंदमूल के आहार के रूप में ग्रहण करने के विपक्ष में प्रबलतर तर्क उनके उखाड़ने के समय उनके चहुं ओर पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं के पीड़न-हिंसाजन्य संभावित पापबंध से संबंधित है। इस विषय में भी यह मनोरंजक है कि फूलों की शोभा और उपयोगिता उनके माध्यम से प्रभु पूजन जन्य पुण्यार्जन, पुष्पहारों के माध्यम से स्वयं तथा अन्यों को सुवासित एवं सम्मानित करने तथा महिलाओं की सुषमा हेतु वेणी बनाने आदि में मानी जाती है। यद्यपि शुद्ध अहिंसक जन इसके समर्थक नहीं हैं, वे तो निर्जीव सूत्र-गुच्छ और अब तो प्लास्टिक गुच्छादि का दीप-ज्वलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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