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________________ १२ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३ माना जाता है क्योंकि इस जाति में अनेक धार्मिक व विद्वान् विभूतियां पैदा हुई हैं। इसी प्रकार पूर्व निजाम के राज्य क्षेत्र में पोरवाड़ों की तुलना में श्रावगियों का अधिक सम्मान होता था तथा उन्हें सबसे ऊँचा माना जाता था। कर्नाटक के उत्तरी कनारा जिले में जैनों के तीन विभाजन हैं जिनमें क्रमश: चतुर्थ, तगारा-बोगरा एवं पुजारी शामिल हैं। यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अधिकांश जैन अपने आपको वैश्य समुदाय का मानते हैं तथा उनमें शूद्र जातियां नहीं हैं जबकि वास्तविकता इससे भिन्न दिखाई देती है। एक ओर जैन मानते हैं कि बिना किसी जातीय भेद भाव के कोई भी व्यक्ति जैन धर्म अंगीकार कर सकता है वहीं दूसरी ओर यह कहना कि जैनों में शूद्र नहीं हैं, एक हास्यपद स्थिति है। जबकि महावीर स्वामी के समय ब्राह्मणीय धर्म से निम्न जातियों ने भारी संख्या में जैन धर्म अंगीकार किया था। शूद्रों को वैदिक परम्परा में अत्यधिक निम्न स्थान प्राप्त था। उन्हें धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार नहीं था। मन्दिर प्रवेश पर भी रोक थी, इसलिए निम्न जाति के लोग जैन धर्म की ओर आकर्षित हुए। इसलिए अनेक जैन जातियां शूद्रों से बनी हैं। अनेक जातियां जो दस्सा और बीसा में विभाजित हैं उनमें अनेक स्थानों पर दस्साओं को मन्दिर में पूजा करने की अनुमति नहीं है । " दिगम्बर साधु ऐसे लोगों का भोजन स्वीकार नहीं करते जो विधवा विवाह करते हैं। वर्तमान में भी दिगम्बर जैन साधु शूद्रों का भोजन स्वीकार नहीं करते । दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार शूद्रों को मोक्ष का अधिकार नहीं है। वे उच्च श्रेणी के साधु भी नहीं बन सकते तथा उन्हें पूजा का भी अधिकार नहीं है। जैन सम्प्रदाय में ब्राह्मणों का भी महत्व नहीं है। जैन ब्राह्मणों के स्थान पर क्षत्रियों को प्रमुख स्थान देते हैं। ऐसा देखने को मिलता है कि जैनों की अनेक जातियों के नाम उनके उद्गम स्थान के नाम पर हैं। उदाहरणार्थ श्रीमाल (वर्तमान भीनमाल ) से श्रीमाली, ओसियां से ओसवाल, अग्रोहा से अग्रवाल, बघेरा से बघेरवाल, चित्तौड़ से चित्तौड़ा, खण्डेला से खण्डेलवाल इत्यादि । दिगम्बर जैन समाज भी विभिन्न जातियों में विभाजित है। जैन मात्र कोई नहीं है। इनकी पहचान किसी न किसी जाति में समाहित हुए बिना नहीं है । दिगम्बर जैन जातियों की संख्या निश्चित नहीं है। वैसे अधिकांश जैन विद्वान् ८४ जातियों के नाम. गिनाते हैं । ८४ की संख्या उत्तरी भारत में बहुत प्रचलित है। इसलिए ८४ जातियों का उल्लेख आता है। विभिन्न शताब्दियों में होने वाले विद्वानों ने जातियों का जो विवरण लिखा है। उसमें समानता नहीं है । १५वीं शताब्दी के विद्वान् ब्रह्मजिनदास ने सर्वप्रथम ८४ जातियों के नाम गिनाए हैं लेकिन उनके पश्चात् होने वाले रचनाकारों द्वारा प्रतिपादित जातियों का विवरण ब्रह्मजिनदास से नहीं मिलता है। १८वीं शताब्दी के कवि बख्तदास शाह ने ५-७ पोथियों को देखकर इन जातियों के बारे में लिखा है। उनके युग में कितनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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