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दिगम्बर जैन जातियाँ : उद्भव एवं विकास : ११
दिगम्बर जैन जातियों की उत्पत्ति का कारण
दिगम्बर जैन समाज में जाति प्रथा की उत्पत्ति के दो प्रमुख कारण उभर कर सामने आते हैं। प्रथम एवं प्रमुख कारण वैदिक परम्परा में प्रचलित वर्ण व जाति प्रथा को ही माना जायेगा। दूसरा महत्वपूर्ण कारण जैन समाज का अनेक संघों, उपसंघों, सम्प्रदायों, उपसम्प्रदायों इत्यादि में विभाजित होना है। दिगम्बर जैन जातियों के नामों से यह भी आभास होता है कि इनकी अनेक जातियां व्यवसाय, प्रदेश स्थान इत्यादि के नाम पर भी उत्पन्न हुई हैं। यद्यपि भगवान् महावीर के समय जाति प्रथा ने अधिक जोर नहीं पकड़ा लेकिन उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों पश्चात् ही अनेक जैन जातियों की उत्पत्ति दिखाई देती है। इसलिए सम्यक् दर्शन के परिपालन में जातिमद को भी अवरोधक माना गया है। यद्यपि आदिपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन ने “मनुष्य जाति: एकैव" कहकर जातियों के महत्व को कम करना चाहा और समस्त मानव जाति को एक ही समान माना। महावीर स्वामी के पश्चात् होने वाले गणधरों, केवलियों, आचार्यों एवं भट्टारकों की अनेक पट्टावलियां मिलती हैं जिनमें आचार्यों एवं भट्टारकों के नाम के साथ उनकी जातियों का भी उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन सम्प्रदाय में जाति प्रथा का प्रचलन महावीर स्वामी के निधन के पश्चात ही आरम्भ हो गया था। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है कि जैन जातियों के उद्गम के तीन प्रमुख कारण हैं जिनमें वैदिक प्रभाव, विभिन्न जैन समूहों व सम्प्रदायों का उदय, स्थान विशेष व व्यवसाय आधारित जाति प्रमुख रहे हैं। जैन समुदाय में जाति प्रथा अब पूर्णत: जन्म आधारित है किन्तु इसका उदय विभिन्न कारणों से हुआ।
जैन जातियां नाममात्र की ही जातियां नहीं हैं बल्कि इनका आज भी भारी सामाजिक व सांस्कृतिक महत्व है। अनेक सामाजिक निर्णय इनकी जातीय पंचायतों द्वारा निर्धारित होते हैं। किसी भी सामाजिक अपराधी को दण्डित करने का कार्य जैनों की जातीय पंचायतें करती हैं। दिगम्बर जैन समुदाय भारी संख्या में जातियों में बंटा हुआ है तथा इसकी प्रत्येक जाति की अपनी अलग पंचायत है जो अपनी जाति के लोगों के जीवन को नियमित करती है। विभिन्न जातियों के नैतिक स्तरों में भी भारी भिन्नता व्याप्त है। उदाहरण के लिए उत्तर भारत की अधिकांश जैन जातियां विधवा विवाह की आज्ञा नहीं देतीं जबकि दक्षिण की जातियों में विधवा विवाह आम तौर पर प्रचलित है। इतना ही नहीं बल्कि प्रत्येक जाति के जन्म, विवाह एवं मृत्यु सम्बन्धी आयोजनों में भी जातीय भिन्नता है। श्रीमाली, अग्रवाल, परवार, सेतवाल एवं अन्य जाति, रीति रिवाजों में भारी भिन्नता लिए हुए हैं। इनमें अपनी-अपनी जाति को सर्वोच्च मानने का मिथ्या अभिमान भी दिखाई देता है। अनेक जैन जातियां जाति तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि जाति के अन्दर भी उनमें बीसा, दस्सा आदि भेद व्याप्त हैं। दिगम्बर जैनों के तेरहपंथ समुदाय की ६ जातियों में चारणगारे जाति को अत्यधिक सम्मानजनक
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