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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ५१ जैन धर्म का नारा है - जीओ और जीने दो। पर्यावरण को अपने ढंग से जीने देना, उसमें कम से कम हस्तक्षेप करना पर्यावरण-सुरक्षा की स्वाभाविक गारंटी है। (मितव्ययता जैन धर्म के व्यावहारिक पहलू की रीढ़ है। कम से कम जरूरत हो उसी के अनुरूप खनिज, हवा, पानी, ऊर्जा, वनस्पतियाँ, त्रस जीवों के शरीर और उनकी सेवाएं उपभोग में ली जाएँ। जिस आचरण से किसी जीव का सर्वथा प्राणहरण हो जाए, उससे बचा जाए। मनुष्य सम्पदा, जल समूह एवं वायु मण्डल के समन्वित आवरण का नाम है - पर्यावरण। वस्तुतः सम्पूर्ण प्रकृति और मनुष्य के उसके साथ सम्बन्धों में मधुरता का नाम पर्यावरण - संरक्षण है। समता, अहिंसा, सन्तोष, अपरिग्रहवृत्ति, शाकाहार का व्यवहार आदि जीवन-मूल्यों के द्वारा ही स्थाई रूप से पर्यावरण को शुद्ध रखा जा सकता है। ये जीवन-मूल्य जैन धर्म के आधार हैं। धर्म के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए जैन साहित्य में कहा है - धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणतयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि आत्मा के दस भाव धर्म हैं। रत्नत्रय धर्म है तथा जीवों का रक्षण करना धर्म है। पर्यावरण की शुद्धता के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के धर्म को अंगीकार कर उसमें जीने की बड़ी सार्थकता है। भगवान् महावीर ने लोभविजय, बुद्ध ने तृष्णाक्षय, कबीर ने संतोषधन आदि पर विशेष जोर देकर मनुष्य को उपभोग से उपयोग की ओर लौटने की बात कही है। यही प्रदूषण की महाव्याधि से मानवता को स्वस्थ कर सकती है। कबीर की यह वाणी सुख, शान्ति और समृद्धि एक साथ प्रदान करने वाली है - योधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान। जब आवे सन्तोषधन, सब धन धूलि समान।। वनविनाश के दुष्परिणाम - वनस्पति हास के कारण प्रलय तक हो सकता है। औद्योगिक और गहन नगरीकरण के साथ वन विनाश बड़ी तेजी से होता जा रहा है। औद्योगीकरण से कार्बन-डाई-आक्साइड एवं विषैली गैसों की वायु मण्डल में मात्रा निरन्तर बढ़ती और प्राणवायु ऑक्सीजन की मात्रा घटती ही जा रही है। लगता है मानव अपनी कष्टमय मौत को निमंत्रण देते हुए अपने अन्त की ओर अग्रसर हो रहा है। इन सभी तथ्यों का संकेत अब प्रकृति भी देने लगी है। पर्यावरण को प्रदूषित करने में मानव की अहम् भूमिका रही है। अपनी विलासितापूर्ण जीवन जीने की ललक में वह प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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