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________________ को भी नष्ट नहीं करता है - मेहावी णेव सयं वणस्सतिसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहिं वणस्सतिसत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽण्णे वणस्सतिसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अपनी पुस्तक जैनधर्म पुस्तक में कतिपय वृक्षों के उपयोग का निषेध किया है। । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त यहां तक कहते हैं कि मानव सभी जीव खाने लगा है; अब तो निर्जीव वस्तुएँ खानी ही शेष रही हैं - विहंगमों केवल पतंग, जलचरों नाव ही। चौपायों में भोजनार्थ, केवल चारपाई बची रही।। सभी सजीव वस्तुओं को खाने के बाद उड़ने वालों में पतंग, जलजीवों में नाव और चौपाये जानवरों में केवल चारपाई, यानी खाट ही खाना शेष है) वनस्पति के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष अनेक लाभ हैं। पृथ्वी पर जीवन का आधार मात्र वनस्पति ही है। आदिपुराण में कहा गया है कि वन, संत एवं मुनिराज कल्याणकारक हैं। ये तीनों समस्त कष्ट दूर कर देते हैं। यहाँ तक कि इनकी छाया मात्र में बैठने भर से थकान दूर हो जाती है। वनस्पति की विभिन्नता एवं सघनता के फलस्वरूप विशेष पारिस्थिति तत्वों का निर्माण होता है। वनस्पति हार्दिक प्रसन्नता का चिह्न है। इसकी प्रसन्नता एवं शान्ति से उतना ही घनिष्ट सम्बन्ध है जितना कि दूल्हा-दुल्हन के बीच पाया जाता है। मानव कल्याण एवं सृष्टि के सुसंचालन हेतु वनस्पति का संरक्षण अति आवश्यक है। अकाट्य वैज्ञानिक प्रमाण प्रस्तुत कर स्वयं जैन शास्त्रों ने इनका संरक्षण आवश्यक बताया है। भगवतीसूत्र में कहा गया है - "पुढवी काइया सव्वे समवेदणा समकिरिया" अर्थात् पृथ्वी की भाँति सभी कायों में समान संवेदनशीलता पाई जाती है। अणुसमयं अविरहिए अहारट्ठे समुपज्जइ अर्थात वनस्पति अन्य की भांति बिना किसी रुकावट के अपना भोजन पाती हैं। ये भाव वनस्पति में जीवन के तथ्य को प्रमाणित करते हैं एवं इसकी रक्षा हेतु अहिंसा के मार्ग की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हैं। आचारांगसूत्र में मानव एवं अन्य जीवों के सह-अस्तित्व की वकालत करते हुए सबके जीवन के अस्तिव को बनाये रखने हेतु जोर दिया गया है। भविष्यपुराण में वृक्ष को पुत्र से भी अधिक महत्वपूर्ण माना है। पुत्र मृत्यु के समय माँ-बाप की सेवा करे या न भी करे, परन्तु वृक्ष हमारी जीवन पर्यन्त सेवा करता है। जैन धर्म के दार्शनिक आधार सम्पूर्ण लोकरचना में जीव तत्व की प्रमुख भूमिका है। उसी के उपग्रह से संसार का सामूहिक जीवन स्थिर है। उसी के निमित्त से लोकरचना का सम्पूर्ण पर्यावरण जीवंत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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