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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण :
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“से बेमि - इमं पि जातिधम्मयं, एयं पि जातिधम्मयं, मनुष्य भी जन्म लेता है और वनस्पति भी जन्म लेती है।"
इमं पि वुड्डिधम्मयं, एयं पि वुड्डिधम्मयं, यह भी वृद्धिधर्मा होता है और वनस्पति भी।
इमं पि चित्तमंतयं, एयं पि चित्तमंतयं, यह भी चेतना वाला होता है और वनस्पति भी।
इमं पि छिण्णं मिलाति, एयं छिण्णं मिलाति; मनुष्य भी कटा हआ उदास होता है और वनस्पति भी काटने पर सूख जाने से निर्जीव हो जाती है।
इमं पि आहारगं, एयं पि आहारगं; मनुष्य भी आहार करने वाला होता है और वनस्पति भी।
इमं पि अणितियं, एयं पि अणितियं, यह भी नाशवान होता है और वनस्पति भी नाशवान होती है।
इमं पि असासयं, एयं पि असासयं - मनुष्य भी हमेशा रहने वाला नहीं और वनस्पति भी नाशवान होती है।
इमं पि चयोवचइयं, एयं पि चयोवचइयं - नाशवान मनुष्य भी बढ़ने वाला व क्षय वाला होता है और वनस्पति भी बढ़ने वाली व नाशवान होती है।
इमं पि विप्परिणामधम्मयं, एयं पि विप्परिणामधम्मयं - मनुष्य भी परिवर्तन स्वभाव वाला होता है और वनस्पति भी परिवर्तन स्वभाव वाली होती है।
वनस्पति के उपयोग का निषेध करते हुए तीर्थंकरों ने कहा है कि प्रचार-प्रसार और पूजा-अर्चना में भी इनका उपयोग करना पाप है। कहा है - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं बणस्सइकम्मसमारंभेणं, वणस्सतिसत्थंसमारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसई। यह आसक्ति है, यह मोह है, यह भार है और यही नरक है। इन सभी चेतावनियों के उपरांत भी यदि मानव वनस्पति को नष्ट करता है तो सबका अहित करता है। श्रावक के लिए कर्मादानों का सेवन करना निषिद्ध बताया है। प्रथम, द्वितीय तथा तेरहवें नियम वनस्पति संरक्षण पर जोर देते हैं। इनमें से प्रथम “इंगाल कम्मे' है, अर्थात् वनस्पति से कोयला निर्माण का कार्य करना। कोयले के व्यवसाय में असंख्य वृक्ष काटे जाते हैं ऐसा करना उचित नहीं, क्योंकि ये वृक्ष ही वायुमण्डल में विभिन्न स्रोतों से प्रवेश करने वाली जहरीली गैसों का अवशोषण करते हैं और जीव को जीवित रखते हैं। द्वितीय कर्मादान “वणकम्मे" है और तेरहवां “दवग्गिदावणियाकम्मे" जो वन व्यवसाय और वन दहन के बारे में बताता है। इनका व्यापार करना पाप है। आचारांग सूत्र में कहा है कि बुद्धिमान मानव वनस्पति
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