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________________ ३४ आत्मा के समान ही अन्य प्राणियों की हत्या, दमन और शोषण को अनावश्यक समझेगा। इस समता भाव से ही क्रूरता मिट सकती है। आत्मा के इसी स्वभाव को जानने के लिए क्षमा, मृदुता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, तप, त्याग, निस्पृही वृत्ति, ब्रहचर्य इन दस प्रकार के आत्मिक गुणों को जानने को धर्म कहा गया है। इन गणों की साधना से आत्मा और जगत् के वास्तविक स्वभाव के दर्शन हो सकते हैं। इसी स्वभावरूपी चादर के सम्बन्ध में संत कबीर ने कहा है: यहि चादर सुर-नर मुनि ओढी, ओढ़ के मैली कीनी चदरिया। दास कबीर जतन कर ओढ़े, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।। जतन की चादरः- विश्व के चेतन, अचेतन सभी पदार्थों के आवरण से देवता, मनुष्य, ज्ञानीजन सभी व्याप्त रहते हैं। पर्यावरण की चादर उन्हें ढके रहती है, किन्तु अज्ञानी जन अपने स्वभाव को न जानने वाले अधार्मिक, उस प्रकृति की चादर को मैली कर देते हैं। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पर्यावरण दूषित कर देते हैं। किन्तु स्वभाव को जानने वाले धार्मिक व्यक्ति संसार के सभी पदार्थों के साथ जतन (यत्नपूर्वक) का व्यवहार करते हैं। न अपने स्वभाव को बदलने देते हैं और न ही पर्यावरण और प्रकृति के स्वभाव में हस्तक्षेप करते हैं। प्रकृति के सन्तुलन को ज्यो का त्यों बनाए रखना ही परमात्मा की प्राप्ति है। तभी साधक कह सकता है-“ज्यो की त्यों धर दीनी चदरिया" अपने स्वभाव में लीन होना ही स्वस्थ होना है। जब पर्यावरण स्वस्थ होगा तब प्राणियों का जीवन स्वस्थ होगा। स्वस्थ जीवन ही धर्म का आधार है। अत: स्वभावरूपी धर्म पर्यावरण शोधन का मूलभूत उपाय है, साधना है, तो आत्मा साक्षात्काररूपी धर्म विशुद्ध पर्यावरण का साध्य है, उदेश्य है। कबीर ने जिसे "जतन' कहा है जैन दर्शन के चिन्तकों ने हजारों वर्ष पूर्व उसे यत्नाचार धर्म के रूप में प्रतिपादित कर दिया था। उनका उद्घोष था कि-संसार में चारों ओर इतनी जीवन्त प्रकृति भरी हुई है कि मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय उनके घात-प्रतिघात से बच नहीं सकता किन्तु वह प्रयत्न (जतन, तो कर सकता है कि उसके जीवन-यापन के कार्यों में कम से कम प्राणियों का घात हो। उसकी इस अहिंसक भावना से ही करोड़ों प्राणियों को जीवनदान मिल सकत है। प्रकृति का अधिकांश भाग जीवन्त बना रह सकता है जैसा कि कहा है जयं चरे जयं चिठे जयं मासे जयं सये। जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई।। व्यक्ति यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, बैठे, यत्नपूर्वक सोए, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो इस प्रकार के जीवन से वह पाप-कर्म को नहीं बांधता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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