________________
जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ३५
चलने, ठहरने, बैठने और सोने की क्रियाओं का धरती के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन क्रियाओं को यदि विवेकपूर्वक और आवश्यकता के अनुसार सीमित नहीं किया जा सकता तो सारे संसार की हिंसा इनमें समा जाती है। दो गज जमीन की आवश्यकता के लिए पूरा विश्व ही छोटा पड़ने लगता है। ये क्रियाऐं फिर हमारी आँखों के दायरे से बाहर होती हैं। अतः इनके लिए की गयी हिंसा, बेइमानी और शोषण हमें दिखता नहीं है, या हम उसे अनदेखा कर देते हैं। अपना पाप दूसरों पर लाद देते हैं। इससे पर्यावरण के सभी घटक दूषित हो जाते हैं। धरती की सारी खनिज सम्पदा हमारे ठहरने और सोने के सुख के लिए बलि चढ़ जाती है। दूसरी महत्वपूर्ण क्रिया भोजन की है। आचार्य कहते हैं यत्नपूर्वक भोजन करो। इस सूत्र में अल्प भोजन, शुद्ध भोजन, शाकाहार आदि सभी के गुण समाये हुए हैं। भोजन प्राप्ति में जब तक अपना स्वयं का श्रम एवं साधन की शुद्धता सम्मिलित न हो तब तक वह यत्नपूर्वक भोजन नहीं कहलाता है। व्यक्ति यदि इतनी सावधानी अपने भोजन में कर ले तो अतिभोजन और कुभोजन की समस्या समाप्त हो सकती है। पौष्टिक और शाकाहारी भोजन से कई प्रकार के स्वास्थ्य प्रदूषणों को रोका जा सकता है । यत्नपूर्वक प्रयोग करने की नीति जहाँ व्यक्ति को हित, मित और प्रिय बोलने के लिए प्रेरित करती है, वहीं इससे ध्वनि-प्रदूषणों को रोकने में भी मदद मिल सकती है। अतः हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अहिंसा, संयम व तप धर्म है।
इस तीर्थंकरीय आभूषण को हम सभी को धारण करना चाहिए ।
खोमेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं ण केणवि । ।
अर्थात् मैं समस्त जीवों को क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझको क्षमा करें, मेरी सभी प्राणियों से मित्रता है, किसी से भी मेरा वैर नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org