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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ३३ अपितु मनुष्य और उसके आसपास के वातावरण का भी अध्ययन प्रस्तुत करता है। प्रकृति और मनुष्य को गहराई से जानने और समझने का प्रयत्न ही पर्यावरण को सही ढंग से संरक्षित करने का आधार है। मनुष्य सम्पदा, जल-समूह एवं वायुमण्डल के समन्वित आवरण का नाम है पर्यावरण। वस्तुत: सम्पूर्ण प्रकृति और मनुष्य के परस्पर सम्बन्धों में मधुरता का नाम ही पर्यावरण संरक्षण है। पर्यावरण के विभिन्न आधार और साधन हो सकते हैं, किन्तु धर्म उनमें प्रमुख आधार है। समता, अहिंसा, संतोष, अपरिग्रह वृत्ति, शाकाहार का व्यवहार आदि जीवन मूल्य जैनों का आधार स्तम्भ है। __धर्म के स्वरूप को प्रतिपादित करत्से हुए जैन साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण गाथा आयी है: धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो दसविहो धम्मो। रयणत्रयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि आत्मा के दस भाव धर्म हैं। रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) धर्म हैं तथा जीवों का रक्षण करना धर्म है। धर्म की यह परिभाषा जीवन के विभिन्न पक्षों को समुन्नत करने वाली है। पर्यावरण की शुद्धता के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के धर्म की बड़ी सार्थकता है। वस्तु का स्वभाव-धर्म वस्तु का स्वभाव धर्म है। शरीर का स्वभाव है-जन्म लेना, वृद्धि करना और समय आने पर नष्ट हो जाना इत्यादि। हमने शरीर के स्वभाव को समझने में जो भूल की वही भूल प्रकृति को समझने में करते हैं। प्रकृति के प्राणतत्व का संवेदन हमने अपनी आत्मा में नहीं किया। हम यह नहीं जान सके कि वृक्ष हमसे अधिक करुणावान एवं परोपकारी हैं। प्रकृति का स्वभाव जीवन्त सन्तुलन बनाये रखने का है, उसे हम अनदेखा कर गये। हमने प्रकृति को केवल वस्तु मान लिया है लेकिन वस्तु का स्वभाव क्या है यह जानने की कोशिश नहीं की। परिणामस्वरूप अपने क्षणिक सुख और लालच की तृप्ति के लिए प्रकृति को रौंद डाला, उसे क्षत-विक्षत कर दिया, उसका परिणाम सामने है। जैसे मनुष्य जब अपने स्वभाव को खो देता है तब वह क्रोध करता है, विनाश की गतिविधियों में लिप्त होता है वैसे ही स्वभाव से विपरीत की जा रही प्रवृत्तियाँ आज अनेक समस्या पैदा कर रही हैं। शरीर, प्रकृति एवं अन्य भौतिक वस्तुओं के स्वभाव की जानकारी के साथ व्यक्ति अपनी आत्मा के स्वभाव को जान लेगा कि वह दयाल है, जीवन्त है, निर्भय है, तब यह भी जान जायेगा कि विश्व के सभी प्राणियों का स्वभाव यही है। तब अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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