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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : १७
गयी है और इसीलिए 'अहिंसा परमो धर्म: यह उक्ति प्रसिद्ध है। अहिंसा की महिमा का गान करते हुए कहा गया है
"श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च । अहिंसालक्षणो धर्मः अधर्मस्तविपर्ययः ।।१।। अहिंसैव जगन्माताऽहिंसैवान्नदपद्धतिः । अहिंसेव गतिः साध्वी श्रीरहिंसैव शाश्वती ।।२।। अहिंसैव शिवं सूते दत्ते च त्रिदिवश्रियम् । अहिंसैव हिंत कुर्याद् व्यसनानि निरस्यति ।।३।। परमाणोः परं नाल्पं न मध्द् गगनात्परम् ।
यथाकिन्चित्तथा धर्मो नाहिंसालक्षणात् परम् ।।४।।"
काका साहेब कालेलकर ने जैन धर्म के अहिंसासिद्धान्त के बारे में अत्यन्त सूक्ष्म चिन्तन किया है। वे कहते हैं- 'जैनदृष्टि की जीवनसाधना में अहिंसा का विचार अत्यन्त सूक्ष्म तक पहुँचा है। उसमें अहिंसा का एक पहलू है जीवों के प्रति करुणा और दूसरा है स्वयं हिंसा के दोष से बचने की उत्कृष्ट कामना।
जैन धर्म के अहिंसक-सिद्धान्तों ने यज्ञ में की जाने वाली पशुहिंसा को उन्मूलित करने में भी अत्यधिक योगदान किया है। यज्ञों में पशुहिंसा प्राचीनकाल में अत्यधिक प्रचलित थी उसका आधुनिक युग में जो सर्वथा अभाव पाया जाता है, वह जैन धर्म के अहिंसक-सिद्धान्त के प्रबल प्रचार से ही सम्भव हुआ है। इस प्रकार जैन धर्म ने समस्त प्रकार के पशु-पक्षियों को अभय प्रदान कर पर्यावरणपरिशुद्धि में अनुपम योगदान दिया है।
जैन धर्म का अहिंसक-सिद्धान्त तो पर्यावरणपरिशुद्धि के लिए सर्वोत्कृष्ट उपाय है ही, परन्तु अहिंसा पर आधारित सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और निरामिष आहारवृत्ति भी पर्यावरणपरिशुद्धि में सहायक है। सत्यवचन के प्रयोग से मानसिक अथवा आध्यात्मिक पर्यावरण की परिशुद्धि होती है। असत्य वचन से मानसिक हिंसा होती है। सत्य महाव्रत को जीवन में अपनाने से ही समाज छल, धोखा तथा अन्य मिथ्या आचरणों से मुक्त हो सकता है। सत्य पर बल देने के कारण जैन धर्म समाज में आध्यात्मिक पर्यावरण की परिशद्धि के लिए अत्यन्त उपयोगी है। वस्तुस्थिति यह है कि सत्यव्यवहार को तिलांजलि देकर असत्यव्यवहार के कारण ही हमारे देश में मिथ्या आचरणमूलक घटनाओं का बाहुल्य हो गया है।
• अस्तेय से पर्यावरणपरिशद्धि- सत्य की भाँति अस्तेयवृत्ति भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक पर्यावरण की परिशुद्धि के लिए अत्यन्त
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