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________________ "धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। - रयणत्तय च धम्मा, जीवाणंरक्खण धम्मो।।" यद्यपि जगत् में आत्यन्तिक अहिंसा की स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती तथापि जैन धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार अहिंसा की यथासम्भव चरम स्थिति तक पहुँचा जा सकता है। पर्यावरण के समस्त घटकों को जीव मानने तथा अहिंसा को अत्यधिक महत्व देने के कारण जैन धर्म विश्व में पर्यावरण के संरक्षण में अग्रणी हो सकता है, परन्तु इस भोगवादी युग में जैनधर्म की इस विचारधारा को स्वीकार करने वाले लोग अल्पसंख्यक ही हैं। जैन धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त को अपनाने से मनुष्य की न तो त्रस जीवों की हिंसा में प्रवृत्ति होगी और न स्थावर जीवों की हिंसा में। इससे सम्पूर्ण वनस्पतिसम्पदा की सुरक्षा हो जायेगी। ऐसी स्थिति में अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक महाप्रकोपों से मानव का त्राण हो जायेगा। हिंसक वृत्ति को अपनाने से मानव प्राकृतिक प्रकोपों की विभीषिका से सन्त्रस्त है। जैन धर्म-सम्मत अहिंसावृत्ति को न अपनाने से ही जलप्रदूषण पराकाष्ठा को प्राप्त हो गया है। भूगर्भीय तत्वों की प्राप्ति के लिए पृथ्वी के निरंतरं दोहन से भूकम्पों की विभीषिका मानव को प्रकम्पित कर रही है। समस्त षट्कायिक जीव अपने अहिंसक स्वरूप से विश्व में सुख-समृद्धि का साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं, परन्तु मानव की अमर्यादित तथा क्रूर हिंसा ने स्वर्ग को नरक में बदल दिया है। अहिंसकवृत्ति से ही पशु-पक्षियों की जाति-प्रजातियों की रक्षा हो सकती है। इसी से जल शोधक मछली आदि जलचर जीवों की रक्षा सम्भव है। अहिंसावृत्ति से ही अशुद्ध जल तथा अनावश्यक जलप्रवाह की समस्या से बचा जा सकता है। जैन धर्म में मानव की दिनचर्या के लिए किये जाने वाले प्रत्येक कार्य की अहिंसापरक विधि बतलायी गयी है। उन विधियों को अपनाने से ही भूमिप्रदूषण तथा अग्निप्रदूषण आदि का अधिकतम निवारण किया जा सकता है। जिस प्रकार हिंसा के व्यापक स्वरूप पर चिन्तन करने पर स्तेय, असत्य, अब्रह्मचर्य, परिग्रह तथा मांसभक्षण आदि हिंसा के ही रूंप प्रतीत होते हैं उसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह तथा निरामिष भोजन आदि पुण्य कर्म अहिंसा के व्यापक स्वरूप में समाहित हो जाते हैं। अहिंसकवृत्ति से ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और निरामिष आहार में प्रवृत्ति होती है, क्योंकि अहिंसा ही उनका मूलाधार अथवा जननी है। जैन धर्म में द्रव्यहिंसा और भावहिंसा (सांकल्पिकी हिंसा) दोनों के परित्याग पर बल देने के कारण केवल बाह्य पर्यावरण की ही नहीं, आध्यात्मिक पर्यावरण की भी परिशद्धि हो जाती है। समस्त पापों की मूल हिंसा की आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए अहिंसा का विशेष उपदेश देने के कारण जैन धर्म में अहिंसा ही धर्म का लक्षण बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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