________________
जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
५.
आधुनिक युग में आध्यात्मिकता से विमुख, भोगवादी तथा स्वार्थनिष्ठ मानवसमाज ने धर्म के वास्तविक स्वरूप के अनुसार आचरण न करते हुए विश्व में पर्यावरण प्रदूषण की भयंकर समस्या उत्पन्न कर दी है। पर्यावरण प्रदूषण मुख्य रूप से ये हैं-: १. वायुप्रदूषण, २. जलप्रदूषण, ३. भूमिप्रदूषण, ४. ध्वनिप्रदूषण और रेडियोधर्मी प्रदूषण | पर्यावरण के संरक्षक धर्मों में जैन धर्म का विशिष्ट स्थान है। जैन वाडङ्मय में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति आदि प्राकृतिक तत्वों में वैदिक वाड्मय के समान देवत्व की नहीं अपितु जीवत्व की अवधारणा है। आचार्य उमास्वाति ने संसारी जीवों को त्रस और स्थावर इन दो भेदों में विभक्त करते हुए कहा है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर जीव हैं। इस प्रकार जैन धर्म में पृथ्वीकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय ये षट्कायिक जीव माने गये हैं। इस वर्गीकरण से जैन धर्म के अनुसार समस्त लोक जीवत्व से व्याप्त है और सम्पूर्ण पर्यावरण एक सजीव इकाई है। अतः विश्व के प्रत्येक पदार्थ के प्रति आत्मीयता और संरक्षण की भावना होनी चाहिए। आचारांगसूत्र में इसी भावना को अभिव्यक्ति देते हुए कहा गया है कि जिसे तू मारने, आज्ञा देने, परिताप देने, पकड़ने तथा प्राणहीन करने योग्य मानता है, वह वास्तव में तू ही है" अन्य धर्मदर्शनों में जगत् का जड़ और चेतन भेद से विभाग किया गया है। देहधारी चेतन जीवों के अतिरिक्त पृथ्वी आदि तत्वों को जड़ अर्थात् अचेतन कोटि में मानने से उनके संरक्षण के प्रति वह आत्मीय भाव नहीं उत्पन्न होता जो उनको जैन धर्म में जीव कोटि में मानने से उत्पन्न होता है। जैनदर्शन में स्वीकृत अहिंसा, अपरिग्रह, समताव्यवहार, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और शाकाहार के नियमसिद्धान्त पर्यावरण के संरक्षण में अत्यधिक उपयोगी तथा समर्थ साधन हैं। ?
: १५
अहिंसा से पर्यावरणपरिशुद्धि- अहिंसा के उत्कृष्ट स्वरूप का जैसा सूक्ष्म विवेचन जैन धर्म-दर्शन में प्राप्त होता है वैसा अन्य किसी धर्म में नहीं प्राप्त होता । हां उपनिषदों में अहिंसा को अत्यधिक महत्व दिया गया है। जैन धर्म में पर्यावरण के समस्त घटकों को सजीव मानने के कारण अहिंसा का भाव ही उसके संरक्षण का सर्वोत्कृष्ट साधन हो सकता है और इसलिए जैन धर्म में स्वीकृत जीवनपद्धति के नियमों में अहिंसा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। अतः सर्वप्रथम यही विचारणीय है कि जैन धर्म के अनुसार अहिंसा किस प्रकार पर्यावरण का संरक्षण और परिपोषण करती है। अहिंसात्मक आचरण षट्कायिक पर्यावरण की रक्षा के लिये जैन धर्म का मूलाधार है। आचार्य उमास्वाति का 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् " यह प्रसिद्ध सूत्र पर्यावरण के संरक्षण के लिए महामन्त्र है। जैनागमों में धर्म के व्यापक स्वरूप का विवेचन करते हुए जीवों के रक्षण को भी माना गया है, जैसा कि निम्नलिखित गाथा से ज्ञात होता है
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org