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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ध्वनि प्रदूषण का सम्बन्ध भी वायुप्रदूषण और वायुमण्डल से है। ध्वनि स्वास्थ्य का जबर्दस्त शत्रु है । औद्योगिक यन्त्रों तथा वाहनों के कारण यह शत्रुता बढ़ती ही जा रही है। आवाज की तरंगों का संपीडन होता है, मन विचलित होता है। इस तीव्र ध्वनि से वार्तालाप में बाधा होती है, सामान्य आचरण प्रभावित होता है, कानों पर असर पड़ता है, श्रवणशक्ति कम हो जाती है। हृदय, तन्त्रिका तन्त्र तथा पाचनतन्त्र पर भी असर पड़ता है, मांसपेशियों में तनाव होता है। अतः ध्वनि को नियन्त्रित करना चाहिए । कुछ वृक्ष पंक्तियाँ रोपित करनी चाहिए जो ध्वनि को शोषित कर सकें। जल एक प्राकृतिक स्रोत है। पृथ्वी का दो तिहाई भाग जल होते हुए भी - उपभोग योग्य जल की मात्रा बहुत कम है। अधिकांश जल समुद्री है। उपभोग योग्य जल के मुख्य श्रोत हैं- धारायें, झीलें, नदियाँ, तालाब, जलाशय, संचित जल, झरने और कुएँ। स्वास्थ्यकारी जल बैक्टीरिया से मुक्त और गन्धहीन होता है । उसमें पर्याप्त मात्रा में घुलित आक्सीजन तथा कार्बोनिक अम्ल होते हैं और वह विशुद्ध होता है। जल वस्तुतः जीवन है। यह सर्वोपयोगी तत्व है, इसलिए संरक्षणीय है। मानव जल को प्रदूषण से मुक्त रखने एवं उसके सीमित उपयोग के लिए जैन-ग्रन्थों में अनेक निर्देश उपलब्ध हैं । यद्यपि प्राचीन काल में ऐसे बड़े उद्योग नहीं थे, जिनसे बड़ी मात्रा में जल प्रदूषण हो, फिर भी जल में अल्प मात्रा में भी प्रदूषण न हो इसका ध्यान जैन परम्परा में रखा गया है। जैन परम्परा में प्राचीन काल से यह अवधारणा रही है कि नदी, तालाब, कुएँ. आदि में प्रवेश करके स्नान, दातौन तथा मल-मूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिए, क्योंकि जल में शारीरिक-मलों के उत्सर्ग के परिणामस्वरूप जो विजातीय तत्व उसमें मिलते हैं, उनसे बहुतायात से जलीय जीवों की हिंसा होती हैं और जल प्रदूषित होता है। जैन परम्परा में आज भी यह लोकोक्ति है कि पानी का उपयोग घी से भी अधिक सावधानी से करना चाहिए। पूर्व में घी के गिरने पर उतनी प्रताड़ना नहीं मिलती थी, जितनी कि एक गिलास पानी के गिर जाने पर। आज से २०-२५ वर्ष पूर्व तक जैन मुनि यह नियम या प्रतिज्ञा दिलाते थे कि नदी, कुँए आदि में प्रवेश करके स्नान नहीं करना, स्नान में एक घड़े से अधिक पानी का व्यय नहीं करना आदि। उनके ये उपदेश हमारी आज की उपभोक्ता संस्कृति को हास्यापद लगते हों किन्तु आज जो पीने योग्य पानी का संकट है उसे देखते हुए, ये नियम कितने उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं, इसे कोई भी व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। जैन परम्परा में मुनियों के लिए तो सचित्त - जल ( जीवन युक्त जल) के प्रयोग का ही निषेध है। जैन मुनि केवल उबला हुआ पानी या अन्य किन्हीं साधनों से जीवाणुरहित किया हुआ जल ही ग्रहण कर सकता है। सामान्य उपयोग के लिए वह ऐसा जल भी ले सकता है जिसका उपयोग गृहस्थ कर चुका हो और उसे बेकार मानकर फेंक रहा हो। गृहस्थ उपासक के लिए भी जल के उपयोग से पूर्व उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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