SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० छानना और सीमित मात्रा में ही उसका उपयोग करना आवश्यक माना गया है। बिना छाना पानी पीना जैनों के लिए पापाचरण माना गया है। जल को छानना अपने को प्रदूषित जल ग्रहण से बचाना है और इस प्रकार वह स्वास्थ्य के संरक्षण का भी अनुपम साधन है। जल के अपव्यय का मुख्य कारण आज हमारी उपभोक्ता संस्कृति है। जल का मूल्य हमें इसलिए पता नहीं लगता है कि प्रथम तो वह प्रकृति का निःशुल्क उपहार है, दूसरे आज नल में टोटी खोलकर हम उसे बिना परिश्रम के पा लेते हैं। यदि कुओं से स्वयं जल निकाल कर और उसे दूर से घर पर लाकर इसका उपयोग करना हो तो जल का मूल्य क्या है, इसका हमें पता लगे। इस युग में जीवनोपयोगी सब वस्तुओं के मूल्य बढ़े किन्तु जल तो सस्ता ही है। जल का अपव्यय न हो इसलिए प्रथम आवश्यकता यह है कि हम उपभोक्ता संस्कृति से विमुख हों। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति पहले से पचास गुना अधिक जल का उपयोग करता है। जो लोग जंगल में मल-मूत्र विसर्जन एवं नदी के किनारे स्नान करते थे उनके जल का वास्तविक व्यय दो लीटर से अधिक नहीं था और उपयोग किया गया जल भी या तो पौधों के उपयोग में आता था या फिर मिट्टी और रेत से छनकर नदी में मिलता था। किन्तु आज एक व्यक्ति कम से कम पांच सौ लीटर जल का अपव्यय कर देता है। यह अपव्यय हमें कहाँ ले जायेगा यह विचारणीय है। वर्तमान समय में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं का उपयोग बढ़ता जा रहा है यह भी हमारे भोजन में होने वाले प्रदूषण का कारण है। जैन परम्परा में उपासक के लिए खेती की अनुमति तो है, किन्तु किसी भी स्थिति में कीटनाशक दवाओं के उपयोग की अनुमति नहीं है, क्योंकि उससे छोटे-छोटे जीवों की उद्देश्य पूर्ण हिंसा होती है जो उसके लिए निषिद्ध है। इसी प्रकार गृहस्थ के लिए निषिद्ध १५ व्यवसायों में विषैले पदार्थों का व्यवसाय भी वर्जित है। अत: वह न तो कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकता है और न ही उनका क्रय-विक्रय कर सकता है। महाराष्ट्र के एक जैन किसान ने प्राकृतिक पत्तों गोबर आदि की खाद से तथा कीटनाशकों के उपयोग के बिना ही अपने खेतों में रिकार्ड उत्पादन करके सिद्ध कर दिया है कि रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय, क्योंकि इससे न केवल पर्यावरण का संतुलंन भंग होता है और वह प्रदूषित होता है, अपितु हमारे खाद्यान भी विषयुक्त बनते हैं जो हमारे लिए हानिकारक होते हैं। इसी प्रकार जैन परम्परा में जो रात्रि भोजन निषेध की मान्यता है वह भी प्रदूषण मुक्तता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक मान्यता है जिससे प्रदूषित आहार शरीर में नहं पहुँचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है वह जितना प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्यचर्द्धक होता है, उतना रात्रि के अन्धकार या कृत्रिम परकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है। यह मनोकल्पना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy