SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० : श्रमण, वर्ष ५४, अंक ४-६/अप्रैल-जून २००३ श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् भाग २ एवं ३, संपा० - पंन्यास श्री संयमरति विजय गणि के शिष्य पंडितरत्न श्री योगतिलक गणि जी म० सा०, आकार - पोथी; प्रकाशक - संयम सुवास C/o शेठ जमनादास जीवतलाल, जूनागंज बाजार, भाभर, जिला - बनासकांठा, गुजरात, पिनकोड - ३८५३२०; प्रथम आवृत्ति - वि०सं० २०५८; अमूल्य विक्रम सम्वत् की १२वी शताब्दी में चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज और राजर्षि कुमारपाल के समय गुर्जरधरा में श्वे० जैन परम्परा अपने विकास के चरमोत्कर्ष तक पहुंच गयी। इसका प्रधान श्रेय कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि को है। श्वे० जैन परम्परा की यह गौरवपूर्ण स्थिति न केवल बाद की शताब्दियों में लम्बे समय तक बनी रही बल्कि आज भी प्राय: वही स्थिति है। वस्तुत: आचार्य हेमचन्द्र की अगाध विद्वत्ता और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व ने जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल को इस प्रकार प्रभावित किया कि शासकों के साथ-साथ बड़े-बड़े राज्याधिकारी, श्रेष्ठीवर्ग और जनसामान्य भी इससे अछूते न रहे और श्वे० परम्परा की जड़ें वहां अत्यन्त गहराई तक पहुंच गयीं जो वहां आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। हेमचन्द्रसूरि न केवल एक अत्यन्त प्रभावशाली जैन आचार्य थे बल्कि उस काल के श्रेष्ठतम विद्वान् भी थे। उनके द्वारा रचित कालजयी कृतियां इसका ज्वलन्त प्रमाण हैं। प्राय: ये सभी कृतियां विद्वानों द्वारा सुसंपादित एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कुछ कृतियों का तो एक से अधिक स्थानों से प्रकाशन भी हो चुका है। विवेच्च ग्रन्थ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। संस्कृत भाषा में रचित इस महत्त्वपूर्ण कृति का गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी भाषा में अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत संस्करण के सम्पादक पंडितरत्न मुनिश्री योगतिलक विजय जी गणि ने अत्यन्त श्रमपूर्वक इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। हम आशा करते हैं कि उनके द्वारा सम्पादित इस विशाल ग्रन्थ के अन्य भाग भी शीघ्र ही विद्वद्जनों के समक्ष होंगे। ग्रन्थ की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही सर्वोत्तम कागज पर शुद्ध और सुस्पष्ट रूप से मुद्रित इस महत्त्वपूर्ण कृति का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हो, इस दृष्टि से इसे अमूल्य ही रखा गया है। एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का व्यय साध्य प्रकाशन और उसका अमूल्य वितरण कर प्रकाशक संस्था और उसके अर्थ सहयोगी श्रेष्ठियों ने एक अनुकरणीय कार्य किया है। प्रत्येक पुस्तकालयों एवं जैन विद्या के क्षेत्र में संशोधनरत विद्वानों के लिये यह कृति अनिवार्य रूप से संग्रहणीय है। . त्रिपुराभारतीस्तव - रचनाकार - लघ्वाचार्य; सम्पादक - मुनि श्री वैराग्यरति विजय; पूर्व सम्पादक - पं० लक्ष्मणदत्त शास्त्री और मुनि जिनविजय जी; प्रकाशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy