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________________ साहित्य सत्कार : १२१ ov . . प्रवचन प्रकाशन, C/o श्री भूपेश भायाणी, ४८८, रविवार पेठ, पूना -४११००२; संशोधित संस्करण वि०सं० २०५८; आकार डिमाई; पृष्ठ ४० +७८; मूल्य ६०/- रुपये मात्र। प्रस्तुत पुस्तक तपागच्छाधिपति आचार्य श्री रामचन्द्रसूरि जी म० सा० के प्रधान शिष्य श्रीमद् विजयमहोदयसूरीश्वर जी म०सा० की पुण्य स्मृति में उन्हीं के नाम पर स्थापित श्री विजयमहोदयसूरि ग्रन्थमाला का नवां पुष्प है। पूर्व में इस कृति का प्रकाशन खेमराज श्रीकृष्ण-मुम्बई और राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर द्वारा हो चुका है। उक्त दोनों संस्करणे को समाप्त हुए काफी समय बीत गया था और उनकी निरन्तर मांग बनी हुई थी इस दृष्टि से मुनि श्री वैराग्यरति विजय जी म० सा० ने पूर्व प्रकाशित दोनों संस्करणों के आधार पर उक्त कृति को पुनर्सम्पादित किया। इस संस्करण में प्रस्तावना के अन्तर्गत 'विमर्श' में विद्वान् सम्पादक ने वैष्णव, शैव, शाक्त आदि तंत्रों के साथ जैन तंत्र का भी बड़ा ही सुन्दर परिचय दिया है। प्रस्तावना के अन्तर्गत मुनि प्रशमरति विजय द्वारा लिखित 'तेरा ध्यान जो न करे ----' और मुनि धुरंधर विजय जी द्वारा लिखा गया 'प्रवेश' भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ऐसे उपयोगी ग्रन्थ को पुन: सम्पादित करने और उसे त्रुटिरहित रूप से अच्छे कागज पर मुद्रित और अल्प मूल्य में पक्की जिल्द के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने हेतु विद्वान् सम्पादक और प्रकाशक संस्था दोनों ही बधाई के पात्र हैं। जैन तन्त्र पर शोधकार्य करने वाले विद्वानों एवं अध्येताओं के साथ-साथ प्रत्येक पुस्तकालयों के लिये यह पुस्तक अनिवार्य रूप से संग्रहणीय है। प्रबद्धरोहिणेयम् - रचनाकार - मुनि रामभद्र, गुजराती अनुवादक - आचार्य विजय शीलचन्द्रसूरि; प्रकाशक - जैन साहित्य अकादमी, C/o श्री कीर्तिलाल हालचन्द वोरा, नवनिधि , प्लॉट नं० १७४, सेक्टर ४, गांधीधाम (कच्छ) पिनकोड - ३७०२० १; प्रथम संस्करण २००३ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ ३६+ १३८; मूल्य - ९०/- रुपये। प्रस्तुत कृति के रचयिता मुनि रामभद्र सुप्रसिद्ध जैन आचार्य बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के प्रशिष्य एवं जयप्रभसूरि के शिष्य हैं। यह रचना संस्कृत भाषा में रची गई है। इसमें भगवान् महावीर के समकालीन राजगृह नरेश श्रेणिक के शासनकाल में हुए प्रसिद्ध चोर रोहिणेय के प्रबुद्ध होने का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है। इस कृति की रचना जालौर के श्रेष्ठी पार्श्वचन्द्र के पुत्रों - यशोवीर और अजयपाल के अनुरोध पर की गयी थी और उन्ही द्वारा वि०सं० १२५० में जालौर में निर्मित आदिनाथ जिनालय में अभिनीत भी की गयी। यह कृति ईस्वी सन् १९१८ में आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित हुई थी और पिछले कई दशकों से Jain Education International For Private & Personal Use Only For www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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