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: श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३ / जनवरी-मार्च २००३
स्थानलाभ संस्कार में उपवास करने वाले भव्य पुरुषों द्वारा विधिपूर्वक जिनालय में जिनेन्द्रदेव की पूजा कर गुरु की अनुमति से गृह गमन किया जाता है । १०५ गणग्रहण संस्कार में मिथ्या देवताओं का विसर्जन कर उनके स्थान पर अपने मत के देवता की स्थापना की जाती है । १०६
पूजाराध्य संस्कार पूजा और उपवास द्वारा भव्य पुरुष का पूजाराध्य संस्कार होता है । १०७
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पुण्ययज्ञा संस्कार सद्धर्मी पुरुष के लिए किया जाता है । १०८ दृढ़चर्या संस्कार में अपने मत के ग्रन्थों का अध्ययन करने के बाद अन्य मत के शास्त्रों को सुना जाता है । १०९
उपयोगिता संस्कार में दृढ़व्रती द्वारा पर्व के दिन उपवास की रात्रि में प्रतिमायोग धारण किया जाता है । ११०
उपनीत संस्कार में शुद्ध एवं भव्य पुरुषों के योग्य चिह्न को धारण किया जाता है। इसमें वेष, वृत और समय के पालन का विधान है । १४
१०. व्रतचर्या संस्कार यज्ञोपवीत से युक्त भव्य पुरुष द्वारा शब्द और अर्थ दोनों का अच्छी तरह उपासकाध्ययन के सूत्रों का अभ्यास करके सम्पन्न किया जाता है । ११२
११. व्रतावतरण संस्कार में अध्ययनोपरान्त श्रावक द्वारा गुरु के समीप सम्यक् विधि से आभूषण आदि धारण किया जाता है । ११३
१२. विवाह संस्कार में भव्य पुरुष द्वारा अपनी पत्नी को दीक्षित कर पुनः यथाविधि उसी से विवाह होता है । ११४
१३. वर्णलाभ संस्कार अपने समान आजीविकाधारी श्रावकों के साथ सम्पर्क के अभिलाषी भव्य पुरुषों का होता है । ११५
१४. कुलचर्या संस्कार द्वारा आर्य पुरुषों के उपयुक्त देवपूजन आदि छ: कार्यों में पूर्ण प्रवृत्ति रखा जाता है । ११६
१५. गृहीशिता संस्कार भव्य पुरुष द्वारा गृहस्थाचार्य पद प्राप्त करने पर सम्पन्न किया जाता है । ११७
१६. प्रशान्तता संस्कार में नानाप्रकार के उपवास किये जाते हैं । ११८
१७. गृहत्याग संस्कार में विरक्त होकर योग्य पुत्र को नीति के अनुसार शिक्षा देकर गृहत्याग किया जाता है । ११९
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