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________________ जैन.पुराणों में वर्णित जैन संस्कारों का जैनेतर संस्कारों से तुलनात्मक अध्ययन : २३ १८. दीक्षाद्य संस्कार में तपोवन के लिए प्रस्थान करने वाले भव्य पुरुष को एक ही वस्त्र धारण करना होता है।१२० १९. जिनरूपता संस्कार में गृहस्थ द्वारा वस्त्र त्याग कर दिगम्बर रूप धारण किया जाता है।१२१ २० से लेकर ४८ तक के अन्य संस्कार गर्भान्वय संस्कार के समान सम्पन्न किये जाते हैं।१२२ क्रियान्वय संस्कार- इसका तात्पर्य कर्ता के अनुरूप क्रिया से है। जो व्यक्ति संसार में अल्प समय तक रहता है अर्थात् जिसे अल्प उम्र में ही सांसारिकता से विरक्त होकर ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उसके लिए इन संस्कारों को सम्पन्न करने का विधान है।१२३ निम्नलिखित सात क्रियान्वय संस्कार हैं जिसे करने से योगियों को परम स्थान की प्राप्ति होती है।२४ १. सज्जाति संस्कार- जब भव्य जीव दिव्य ज्ञानरूपी गर्भ से उत्पन्न होने वाले उत्कृष्ट जन्म को प्राप्त करते हैं तब सज्जाति क्रिया होती है। १२५ पिता के वंश की शुद्धि को 'कुल' एवं माता के वंश की शुद्धि को 'जाति' कहते हैं। कुल एवं जाति की शुद्धि को सज्जाति कहते हैं। सदग्रहित्व संस्कार में गृहस्थावस्था में व्यक्ति आलस्यरहित होकर विशुद्ध आचरण और आत्मतेज प्राप्त करता है। अर्थात् गृहस्थ द्वारा सद्गुणों से अपनी . आत्मा की शुद्धि करना सद्गृहित्व संस्कार कहलाता है।१२६ पारिव्रज्य संस्कार गृहस्थ धर्म का पालन करने के उपरान्त विरक्त हुए व्यक्ति द्वारा किसी शुभ दिन, लग्न में गुरु से दीक्षा-ग्रहण करने को कहा गया है।१२७ इस संस्कार में ममता भाव त्याग कर दिगम्बर रूप ग्रहण करना होता है। सुरेन्द्रता संस्कार द्वारा पारिव्रज्य के फल का उदय होने पर सुरेन्द्र पद की - उपलब्धि होती है।१२८ साम्राज्य संस्कार द्वारा चक्ररत्न के साथ निधियों एवं रत्नों से उत्पन्न हुई सम्पदाएँ चक्रवर्ती को प्राप्त होती हैं। १२९ आर्हन्त संस्कार - स्वर्गावतार आदि महाकल्याणक रूप सम्पदाओं की प्राप्ति अर्थात् अर्हन्त परमेष्ठी की जो पंचकल्याणक रूप सम्पदाओं की उपलब्धि होती है उसे आर्हन्त संस्कार कहा गया है।१३० परिनिर्वृत्ति संस्कार के माध्यम से संसार के बन्धन से मुक्त हुए परमात्मा की अवस्था प्राप्त होती है। इसे परिनिर्वाण भी कहा गया है। समस्त कर्मरूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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