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२० : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ ३१. योगनिर्वाण सम्प्राप्ति संस्कार में अपने आत्मा का संस्कार कर सल्लेखना
धारणार्थ उद्यत और सब प्रकार से आत्मा की शुद्धि की जाती है।७९ ३२. योगनिर्वाणसाधन संस्कार द्वारा समस्त आहार और शरीर को कृश करता
हुआ योगी योगनिर्वाण साधना के लिए प्रेरित होता है। इस समाधि के द्वारा चित्त को जो आनन्द होता है उसे निर्वाण कहते हैं। चूँकि योग निर्वाण का
साधन है अत: इसे योगनिर्वाणसाधन कहा गया है। ३३. इन्द्रोपपादसंस्कार से मन-वचन-कर्म को स्थिर कर जिसने प्राणों का परित्याग
किया है उसे दिव्य अवधिज्ञान होता है कि मैं इन्द्रपद में उत्पन्न हुआ हूँ। ३४. इन्द्राभिषेक संस्कार- जिसे अपने जन्म का ज्ञान हो गया ऐसे इन्द्र का श्रेष्ठ
देवगण इन्द्राभिषेक संस्कार करते हैं।८२ ३५. विधिदान संस्कार द्वारा नम्रीभूत हुए देवों को पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित
करता हुआ वह इन्द्र विधिदान क्रिया में प्रवृत्त होता है।८३ ३६. सुखोदय संस्कार द्वारा सन्तुष्ट हुए देवों द्वारा वह पुण्यात्मा इन्द्र चिरकाल
तक देवों के सुखों का अनुभव करता है।४ ३७. इन्द्रत्याग संस्कार द्वारा धीर-वीर पुरुष स्वर्ग के भोगों व ऐश्वर्य को बिना किसी
कष्ट के त्याग देते हैं। ३८. इन्द्रावतार संस्कार में जो इन्द्र आयु के अन्त में अर्हन्तदेव का पूजन कर स्वर्ग
से अवतार लेना चाहता है उसके आगे की अवतार क्रिया का उल्लेख है।८६ ३९. हिरण्योत्कृष्टजन्मता संस्कार द्वारा रत्नमय गर्भागार के समान गर्भ में तीन
ज्ञान को धारण करते हुए अवतार होता है।८७ ४०. मन्दराभिषेक संस्कार में जन्म के बाद देवों द्वारा मेरु पर्वत पर पवित्र जल
से अभिषेक किया जाता है, वह परमेष्ठी की मन्दराभिषेक क्रिया होती है।८८ ४१. गुरुपूजन संस्कार में उनके विद्याओं का उपदेश होता है तथा सभी उनकी
पूजा करते हैं। ४२. यौवराज्य संस्कार द्वारा युवराज पद प्राप्त होता है और राज्यपट्ट बांध कर
अभिषेक किया जाता है। ४३. स्वराज्य संस्कार में समस्त राजाओं द्वारा राजाधिराज पद पर अभिषेक किया
जाता है और वे अन्य के शासन से मुक्त होकर समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का शासन करते हैं।९१
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