SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 13 जैन पुराणों में वर्णित जैन संस्कारों का जैनेतर संस्कारों से तुलनात्मक अध्ययन : १९ । जिनसेन ने इसे कुलधर्म कहा है।६७ २०. गृहीशिता संस्कार शुभ मन्त्र, वर्णोत्तमता, शास्त्र ज्ञान तथा चारित्रिक गुणों से युक्त गृहीश द्वारा सम्पन्न किया जाता है।६८ २१. प्रशान्ति संस्कार में गृहस्थी का भार समर्थ पत्र को सौंप कर उत्तम शान्ति का आश्रय लिया जाता है तथा अनासक्त होकर स्वाध्याय, सामायिक और उपवास करते रहना प्रशान्ति क्रिया कहलाती है।६९ गृहत्याग संस्कार में सर्वप्रथम सिद्ध भगवान् का पूजन कर समस्त इष्टजनों को आमन्त्रित कर उनको साक्षी मानकर पुत्र को सब कुछ सौंप कर गृहत्याग किया जाता है। ज्येष्ठ पुत्र को आलस्य रहित होकर देव और गुरुओं की पूजा करते हुए अपने कुलधर्म का उपदेश देकर गृहस्थ निराकुल होकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए अपना घर छोड़ देता है। २३. दीक्षाद्य संस्कार दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व किये जाने वाले आचरणों को कहा गया है। २४. जिनरूपता संस्कार में वस्त्रादि का परित्याग कर जिनदीक्षा के इच्छुक पुरुष द्वारा दिगम्बर रूप धारण किया जाता है।७२, २५. मौनाध्ययनवृत्तत्त्व संस्कार दीक्षा के बाद शास्त्र की समाप्ति पर्यन्त मौन रह कर अध्ययन करने की प्रवृत्ति को कहा गया है। इस संस्कार को सम्पन्न करने से इहलोक में योग्यता और परलोक में प्रसन्नता बढ़ती है।७३.. २६. तीर्थकृद्भावना संस्कार में समस्त शास्त्रों के अध्ययनोपरान्त श्रुत ज्ञान प्राप्त तीर्थङ्कर पद की सम्यक्दर्शन आदि भावनाओं का अभ्यास किया जाता है। २७. गुरुस्थानाभ्युपगम संस्कार द्वारा गुरु पद प्राप्त करने के लिए साध में ज्ञानी-विज्ञानी, गुरु को प्रिय, विनयी तथा धर्मात्मा के गुणों का विकास होता है।५ २८. गणोपग्रह संस्कार में गण (मुनि संघ) पोषक द्वारा मुनि, आर्यिका, श्रावक एवं श्राविकाओं के सदाचार, कल्याण और दुराचारियों को दूर हटाने तथा स्वयं के अपराधों का प्रायश्चित्त किया जाता है।६ २९. स्वगुरुस्थानावाप्ति संस्कार में अपने गुरु के समान स्थान एवं सम्मान प्राप्त कर समस्त संघ का पालन किया जाता है।७७ ३०. नि:संगत्वात्मभावना संस्कार द्वारा सुयोग्य शिष्य पर समस्त भार सौंप कर सब प्रकार के परिग्रह से रहित होकर साधु एकांकी विहार करता है।७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy