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________________ १७. १८ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ । १५. व्रतचर्या संस्कार में ब्रह्मचारी को संकल्पपूर्वक गुरु से श्रावकाचार, आध्यात्मशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, शकुनशास्त्रादि विषयों का अध्ययन करना होता है।५१ १६. व्रतावरण संस्कार समस्त विद्याओं का अध्ययन कर लेने के बाद होता है जिसमें जिनेन्द्रदेव और गुरु को साक्षी मानकर मधु, मांस, हिंसादि के पाँच स्थूल पापों के आजीवन त्याग का संकल्प लेना होता है।५२ विवाह संस्कार– भोगभूमि काल में विवाह संस्कार नहीं था, क्योंकि स्त्री-पुरुष युगल साथ उत्पन्न होते और केवल एक युगल को जन्म देकर समाप्त हो जाते थे।५३ कालान्तर में गृहस्थ जीवन में प्रवेशार्थ, सम्यक् जीवन व्यतीत करने, सन्तानों की रक्षा और सामाजिक-व्यवस्था बनाये रखने के लिए विवाह आवश्यक माना गया, क्योंकि विवाह न करने से सन्तति का उच्छेद हो जाता है और सन्तति न होने पर धर्म का उच्छेद होता है। पुत्रहीन मनुष्य की मोक्ष नहीं होती है।५४ जैनेतर ग्रन्थों में भी विवाह के महत्त्व का उल्लेख मिलता है। धर्म, अर्थ व काम की प्राप्ति विवाह का उद्देश्य माना गया है।५५ जैन पुराणों में विवाह के पाँच प्रकारों स्वयंवर,५६ गान्धर्व,५७ परिवार द्वारा नियोजित,५८ प्रजापत्य५९ और राक्षस विवाह का वर्णन है। चारों वर्गों को अपने वर्ण में ही विवाह का विधान था। विशेष परिस्थिति में अनुलोम विवाह करने की छूट थी।६१ सामान्यतः एकपत्नीव्रत का प्रचलन था लेकिन बहु विवाह के अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। विवाह प्राय: वयस्क होने पर सम्पन्न होते थे। कुल, रूप, सौन्दर्य, पराक्रम, वय, विनय, वैभव, बन्धु एवं सम्पत्ति आदि श्रेष्ठ वर के गुण वर्णित हैं।६२ श्रेष्ठ कन्याओं में विनयी, सौन्दर्य, चेष्टायुक्त गुणों का उल्लेख है।६३ विवाह में उपहार भी दिये जाने का उल्लेख है।६४ शुभलग्न में कन्यादान होते थे। इस अवसर पर विशेष उत्सव व बन्धु-बान्धवों का सम्मिलन होता है। मन्त्रोच्चार द्वारा देव- अग्निपूजन, पाणिग्रहण, चैत्यालय में अर्हन्तदेव का पूजन, विवाहोपरान्त सात दिन तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का विधान, विहित है।६५ १८. वर्णलाभ संस्कार में पिता द्वारा पृथक् से धन-मकान आदि पाकर स्वतन्त्र आजीविका किया जाता है। पिता आशीर्वाद देकर सन्तान को वर्णलाभ क्रिया में नियुक्त करता है, जिससे वह सदाचार द्वारा पिता के धर्म का पालन करने में समर्थ होता है।६६ १९. कुलचर्या संस्कार- पूजा, दान, आजीविका के निर्दोष असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प कार्य कुलचर्या संस्कार के लक्षण हैं। आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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