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________________ साहित्य सत्कार : १३० सम्यग्दर्शन, लेखक- प०पू० आचार्य विरागसागर जी, सम्पा० - प्रो० सुदर्शन लाल जैन, आकार- डिमाई, पृष्ठ १२६, प्रका०- श्री सम्यग्ज्ञान दि० जैन विराग विद्यापीठ, बतासा बाजार, भिण्ड (म०प्र०), प्रथम संशोधित-परिवर्द्धित संस्करण २००२ ई०, मूल्य-- ३५/ आचार्य विरागसागर जी द्वारा रचित 'सम्यग्दर्शन' की समीक्षा करना अपने आप में एक धृष्टता है। किन्तु दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते खण्डन-मण्डन, तर्क-वितर्क, वाद-विवाद करना दर्शनशास्त्र का विषय होता है। जैन-दर्शन के मोक्ष साधन में प्रथम ‘सम्यग्दर्शन' ही है। जैन दर्शन में जिसे त्रिरत्न कहा गया है उसमें एक सम्यग्दर्शन भी है। तत्त्वार्थसूत्र १/१ में सम्यग्दर्शन की सुन्दर व्याख्या की गयी है। मुनिश्री द्वारा सम्यग्दर्शन जितना सरल है उतना ही जटिल भी है। सम्यग्दर्शन आत्मा का एक अनिर्वचनीय गुण (शक्ति) है जिसके प्रकट होने से सब कुछ निर्मल हो जाता है। इस ग्रन्थ की रचना आचार्य विद्यासागर जी ने अपने विचारों व अनुभवों से की है। इस ग्रन्थ को मुनि जी ने आठ अध्यायों में विभक्त किया है। मुनि जी द्वारा विरचित ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन पर विशेष बल दिया है क्योंकि मोक्षार्थी का प्रथम मार्ग ही सम्यग्दर्शन है जो अन्य दो सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र का आधार स्तम्भ है। इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शन के बिना न तो मुनि धर्म सम्भव है और न गृहस्थ धर्म। इसीलिए कविवर राजमल्ल जी ने पंचाध्यायी में कहा है - सम्यक्त्व से बढ़कर न तो कोई मित्र है, न बन्धु है और न सम्पत्ति है। सम्यग्दर्शन का शाब्दिक अर्थ होता है-- सत्य दृष्टि या यथार्थ दृष्टि। यही कारण है कि आचार्य जी ने इसी सम्यग्दर्शन को ही आधार बनाया जिससे कि समाज को एक सही मार्ग दर्शन मिल सके। निश्चित ही यह पुस्तक विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों व समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। आचार्य विरागसागर जी के इस प्रयास व्याख्या करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान होगा। अनेकान्तदर्पण, अंक ४, २००२ ई०, सम्पा०- डॉ० रतनचन्द्र जैन, आकार-डिमाई, प्रकाशक- अनेकान्त ज्ञान मन्दिर शोध संस्थान, बीना (म०प्र०) ४७०११३. अनेकान्त ज्ञानमन्दिर शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित अनेकान्तदर्पण-४ में विभिन्न विद्वत् जनों के लेखों का संकलन है। अनेकान्तदर्पण-४ के दो खण्ड किये गये है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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