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________________ १२९. : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ ३९, कलिकुण्ड सोसायटी, मफलीपुर चार रास्ता, धोलका– ३८७८१० (गुजरात राज्य) प्रथम आवृत्ति, वि०सं० २०५८, मूल्य- निःशुल्क। इस पुस्तक का उद्देश्य समाज में फैल रहे महावीर के गलत सन्देश को रोकना है। इस पुस्तक में उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों की देशना की गयी है। जैन सांस्कृतिक परम्परा में उत्तराध्ययनसूत्र का महत्त्व उसी प्रकार है जिस प्रकार बौद्ध परम्परा में 'धम्मपद' और वैदिक परम्परा में 'भगवद्गीता'। उत्तराध्ययनसूत्र एक जीवन्त शास्त्र है, अध्यात्मशास्त्र है। गागर में सागर की भाँति इसकी गाथाएँ अध्यात्मक रस से परिपूर्ण हैं। जैसा कि महाभारत के सम्बन्ध में कहा जाता है- 'प्रतिपर्व रसोदयम्'। प्रत्येक पर्व पर अधिकाधिक रस का अनुभव होता है। वैसे ही उत्तराध्ययन के विषय में यह कहा जा सकता है- 'प्रतिअध्ययनं अध्यात्मोदयः'। उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक शैलियाँ हैं। जैसे- कापिलीय, नमिप्रव्रज्या, इषुकारीय एवं केशि-गौतमीय संवाद-प्रधान शैली इत्यादि। प्रभु वीर का अन्तिम सन्देश को अध्ययन की सुविधार्थ चार भागों में बाँटा गया है। (क) धर्म कथात्मक अध्ययन (ख) उपदेशात्मक अध्ययन (ग) आचारात्मक अध्ययन (घ) सिद्धान्तात्मक अध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र का प्रारम्भ ‘विनय' से होता है विनय से ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा क्षमा, मृदुता, ऋजुता, सेवा आदि गुणों की पुष्टि होती है। प्रस्तुत पुस्तक का अन्तिम अध्याय 'जीवाजीवविभक्ति' है। संसार में जीव और अजीव ये दो तत्त्व ही मूल हैं। शेष तत्त्व इन्हीं दोनों के संयोग या वियोग से फलित होते हैं। मुनि यशोविजय जी द्वारा विरचित यह ग्रन्थ सभी के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ को पढ़ने से भगवान् महावीर के प्रवचनों की यत्र-तत्र की गयी गलत व्याख्या को रोका जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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