________________
समराइच्चकहा में व्यवसायों का सामाजिक आधार : ८९
सार्थवाह - ये लोग सार्थ (कारवाँ) बनाकर व्यापार के लिए देश के अन्दर दूरस्थ प्रदेशों को आया-जाया करते थे । १५ सार्थ बनाकर व्यापार करने के कारण ही इन्हें सार्थवाह कहा जाने लगा। सार्थवाह सार्थ अर्थात् कारवाँ का नेता होता था। जो धीरे-धीरे वैश्यों में एक महत्त्वपूर्ण वर्ग बन गया । १६ अधिक लाभ की प्राप्ति के लिए सार्थवाह समुद्र पार के द्वीपों में भी जाया करते थे। १७ ये बड़े ही धनी, प्रतिष्ठित तथा सम्पन्न व्यक्ति समझे जाते थे। राज्य भी इनका सम्मान करता था तथा इन्हें सार्थवाहपुत्र नामक आदरसूचक शब्द से सम्बोधित किया जाता था। ' १८ समराइच्चकहा धन, धरण, सुवदन आदि अनेक सार्थवाहों का वर्णन है।
श्रेष्ठी- समराइच्चकहा में श्रेष्ठियों को वैश्यों का तीसरा एवं सबसे सम्पन्न वर्ग माना गया है। धन और समृद्ध के ही आधार पर इन्हें श्रेष्ठी (सेठ) नाम प्रदान किया गया था । १९ ये एक ही स्थान पर ग्राम, नगर अथवा व्यापारिक केन्द्रों में केन्द्रित रहकर अपना व्यवसाय करते थे । मूल्यवान् वस्तुओं के क्रय-विक्रय के साथ-साथ ये लोग रुपये, पैसे का भी लेन-देन करते थे। समाज में इनको श्रेष्ठी की सम्मानसूचक पदवी प्राप्त थी । २० व्यापारिक वृत्ति के होते हुए भी ये अन्य क्षेत्रों यथा धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में भी अपना योगदान देते थे । २१ समराइच्चकहा में एक स्थल पर नगर श्रेष्ठी का उल्लेख किया गया है । २२
गाय
कृषि एवं पशुपालन - जैनसूत्रों में ऐसे अनेक वैश्यों का उल्लेख है, जो व्यापार वाणिज्य के अतिरिक्त कृषि एवं पशुपालन का कार्य करते थे। उत्तराध्ययनटीका में वणिय ग्राम के धनी - सम्पन्न और जमींदार आनन्द नामक गृहपति को अपरिमित सुवर्ण, -बैल, हल, घोड़ा, गाड़ी आदि का स्वामी बतलाया गया है। पराहार एक अन्य गृहपति था, जो कृषि कर्म में कुशल होने के कारण 'किसिपराशर' नाम से विख्यात था, वह ६०० हलों का स्वामी था । ' २३ कुइयण्ण (कुविकर्ण) के पास बहुत-सी गायें थी एवं भरत चक्रवर्ती का गृहपति रत्न सर्वलोक में प्रसिद्ध था। वह शाल आदि विविध धान्यों का उत्पादक था और भरत के घर सब प्रकार के धान्यों के हजारों कुम्भ भरे रहते थे । २४ समराइच्चकहा में चावल, चना एवं गेहूँ की फसलों का विशेष उल्लेख किया गया है। फलों में नारंगी, कदली, आग्र, कंकोल (एक प्रकार का जंगली फल), पनस (कटहल ), पूगफल (सुपारी), अंगूर आदि का उल्लेख है। पशुओं में गाय, बैल, भैस-महिष, बकरा-बकरी, भेंड़, गर्दभ, खच्चर, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, शरभ, हाथी आदि के पाले जाने का उल्लेख भिन्न-भिन्न स्थलों पर हुआ है।
शिल्प व्यवसाय — समराइच्चकहा में तयुगीन हस्तशिल्प के कुछ नाम आये हैं। वस्तुत: यह हस्तशिल्प लघु उद्योग का एक उदाहरण है। आचार्य हरिभद्रयुगीन समाज के आर्थिक गौरव की प्रसिद्धि विकसित उद्योगों पर ही अवलम्बित थी ।
हस्तलाघव को हस्तशिल्प कहा जाता था । २५ हस्तकला से अर्थात् पूर्णतया मानव श्रम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org