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________________ ८८ : श्रमण / जनवरी - जून २००२ संयुक्तांक समराइच्चकहा से विदित होता है कि शूद्र वर्ण के अन्तर्गत आर्य एवम् अनार्य दोनों ही जातियों के लोग शामिल थे। निशीथचूर्णी में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इन चार वर्णों का उल्लेख है । ६ ऋग्वेद एवम् अन्य ग्रन्थों में चारों वर्णों की उत्पत्ति क्रमशः विराटपुरुष के मुख, बाहु, जंघाओं एवं पैरों से बतायी गयी है ! " लेकिन इन वर्णों की उत्पत्ति का वैज्ञानिक आधार व्यावसायिक था।' आदिपुराण में वर्णित है कि व्रत संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और नीच वृत्ति से शूद्र की उत्पत्ति हुई । " आदिपुराण में ही एक अन्य स्थान पर उल्लिखित है कि आदिब्रह्म ऋषभदेव ने तीन वर्णों की स्थापना की थी । शस्त्र धारण कर आजीविका चलाने वाले क्षत्रिय, खेती, व्यापार एवं पशुपालन आदि द्वारा जीवनयापन करने वाले वैश्य तथा अन्य लोगों की सेवा सुश्रुषा करने वाले शूद्र कहलाये । १" आदिपुराण के आधार पर कुछ विचारकों का मत है कि भरत ने अपने पिता ऋषभदेव द्वारा उपदिष्ट धर्म के प्रचारार्थ क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों में से वृत्तिभेद के आधार पर चौथे वर्ण अर्थात् ब्राह्मण की स्थापना की और उन्हें ब्रह्मसूत्र से अलङ्कृत किया। वाणिज्य-व्यवसाय प्राचीनकाल में कृषि के अतिरिक्त देश की समृद्धि का मुख्याधार व्यापार वाणिज्य था। समराइच्चकहा में हट्ट ११ शब्द का उल्लेख है, यही हट्ट आजकल हाट अथवा बाजार के रूप में लिया जाता है। इन हाटों के मध्य सड़कें विस्तृत तथा चौरस होती थीं। भोजन, वस्त्र आदि उपभोग की सभी सामग्रियाँ बाजारों में उपलब्ध थीं । १२ व्यापार-वाणिज्य के साथ-साथ कृषि वैश्यों का प्रारम्भ से ही कर्म माना जाता रहा है; किन्तु आगे चलकर कृषि के स्थान पर वैश्यों ने व्यापार-वाणिज्य को ही प्राथमिकता प्रदान की। इसका कारण सम्भवत: जैनधर्म का प्रभाव माना जा सकता है, क्योंकि जैनधर्म में हिंसा प्रधान कृषि कर्म को त्याज्य एवं व्यापार-वाणिज्य को अहिंसक एवम् अनुकरणीय बतलाया गया है। समराइच्चकहा में व्यापार एवं वाणिज्य कार्य करने वालों को वणिजक तथा वणिक् नामों से सम्बोधित किया गया है। १३ समराइच्चकहा में व्यापारी वर्ग की तीन श्रेणियों या वर्गों का उल्लेख किया गया है— वणिक अथवा वणिजक, सार्थवाह तथा श्रेष्ठी । समराइच्चकहा में सार्थवाह को ही कारवाँ बनाकर देश के अन्दर तथा देश के बाहर समुद्र पार तक व्यापार करते हुए बताया गया है। स्थानीय व्यापारी वणिक्— समराइच्चकहा में वणिक् उन्हें कहा गया है जो गाँवों की हाटों में तथा छोटे-छोटे शहरों में व्यापार करते थे। ये स्थानीय व्यापारी थे, जो स्थानीय लोगों की आवश्यकतानुसार वस्तुओं का क्रय-विक्रय कर उचित लाभ प्राप्त करते थे । प्रतिहार अभिलेख में बंका नामक एक व्यवसायी का उल्लेख है, जो विभिन्न स्थानों से व्यापार के योग्य सामग्रियों का क्रय करता था । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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