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७६ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक
नहीं लगेगी और विश्व शान्ति के कार्य में भी भारत पूर्व की भांति अपार शान्ति का सन्देश देने वाला देश है, इसी रूप में पुन: ख्यात होगा। सन्दर्भ-सूची १. सुरेन्द्रनाथ दीक्षित, भरत और भारतीय नाट्यकला, प्रथम संस्करण, राजकमल
प्रकाशन, दिल्ली, १९७४ ई०, पृ० २४२. नाट्यशास्त्र, सम्पा०- एम० रामकृष्णकवि, भाग १, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज, क्रमांक ३६, बड़ोदरा, १९२६ ई०, भूमिका, पृ० ५२; नगेन्द्र, रस-सिद्धान्त, तृतीय संस्करण, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, १९७४ ई०, पृ० २३७; गणपतिचन्द्र गुप्त, रस-सिद्धान्त का पुनर्विवेचन, प्रथम संस्करण, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, १९६० ई०, पृ० २०. तेन प्रथमं रसाः। ते च नव। शान्तापलापिनस्वष्टाविति तत्र पठन्ति। अभिनवभारती, नाट्यशास्त्र, भाग १, पृ० ६१२. इतिहासपुराणाभिधानकोशादौ च नव रसाः श्रूयन्ते श्रीमत्सिद्धान्तशास्त्रेष्वपि। तथा
चोक्तम्
६.
पों
'अष्टानामिह देवानां शृङ्गारादीन् प्रदर्शयेत्। मध्ये च देवदेवस्य शान्तं रूपं प्रकल्पयेत्।।' अभिनवभारती, नाट्यशास्त्र, भाग १, पृ० ३३९-४०. अभिनवभारती, नाट्यशास्त्र, भाग १, पृ० ३३९-४०.
पूर्वोक्त, पृ० ३३९-४०. ७. संसारभय-वैराग्यतत्त्वशास्त्रविमर्शनैः।
शान्तोऽभिनयनं तस्य क्षमा ध्यानोपकारतः।। नाट्यदर्पण, ३/१७६. ८. न यत्र दुःखम् ...... समप्रमाणः, इत्येवंरूपस्य शान्तस्य
....... युक्तवियुक्तदशायामवस्थितो यः शमः स एव यत:। रसतामेति तदस्मिन् सञ्चार्यादेः स्थितिश्च न विरुद्धा।। साहित्यदर्पण, ३/२५० एवम्
पृ० २७७, पाद टिप्पणी. ९. प्रतापरुद्रीय, पृ० २६०-२६१. १०. V. Raghvan, The Number of Rasas, Adyar, 1990, p. 124-125.
भोज शृङ्गारप्रकाश, जिल्द २, पृ० ४३८. ११. काव्यानुशासन, २/पृ० १०६. १२. रसतरङ्गिणी, पृ० १६१.
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