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________________ पादलिप्तसूरि रचित 'तरंगवईकहा' (तरंगवतीकथा) : ६९ २ तरंगवईकहा प्राकृत-कथा-साहित्य की सबसे प्राचीन कथा है। इस नाम की प्रेमकथा का उल्लेख अनुयोगद्वारसूत्र, ' 'दशवैकालिकचूर्णि' तथा 'विशेषावश्यकभाष्य' में मिलता है। निशीथचूर्णि में तरंगवती को लोकोत्तर धर्मकथा कहा है। उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में इस कथा की प्रशंसा की है। इसे वहाँ संकीर्ण कथा कहा गया है।" इसी प्रकार धनपाल कवि ने तिलकमञ्जरी में, ६ लक्ष्मणगणि ने सुपासनाहचरिय' में तथा प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभावकचरित' में तरंगवती का सुन्दर शब्दों में स्मरण किया है। तरंगवती अपने मूल रूप में अब उपलब्ध नहीं है, हाँ, उसका संक्षिप्त रूप १६४३ गाथाओं में 'तरंगलोला' नाम से उपलब्ध है। इसके रचनाकार हाइकपुरीय गच्छीय नेमिचन्द्रगणि का कथन है कि तरंगवती बहुत बड़ा ग्रन्थ था और इसकी कथा अद्भुत थी। यह वैराग्यमूलक एक प्रेमकाव्य है। तरंगवतीकथा के रचयिता पादलिप्तसूरि थे। उनका जन्म कोशल में हुआ था। उनका पूर्व नाम नागेन्द्र था, साधु हो जाने पर 'पादलिप्त' नाम हुआ। वे जैनधर्म के एक प्रसिद्ध एवं प्राचीन आचार्य थे और सातवाहननरेश हाल की राजसभा में सम्मानित कवि थे। उद्योतनसूरि ने भी कुवलयमाला की प्रस्तावना-गाथाओं में इन्हें राजा सातवाहन की गोष्ठी की शोभा कहा है। एक किंवदन्ती के अनुसार वे उज्जयिनी के राजा विक्रम के समकालीन थे। विद्वानों ने इनका समय चौथी शती से पूर्व निश्चित किया है। इनका विशेष परिचय प्रभावकचरित में दिया गया है।" प्रो० लायमन ने तरंगवई का रचना - काल ईस्वी सन् की दूसरी-तीसरी शताब्दी स्वीकार किया है। तरंगलोला को संक्षिप्त तरंगवती" भी कहते हैं और इसमें कथावस्तु चार खण्डों में विभक्त है, जो संक्षेप में इस प्रकार है चन्दनबाला के नेतृत्व में साध्वी संघ में सुव्रता आर्या थी, जो अतिरूपवती थी। उसे अपने रूप-सौन्दर्य का गर्व था, वह एक श्राविका को अपनी जीवनकथा कहती है— पूर्व भव में वह एक धनी वणिक् की सुन्दरी पुत्री थी। एक दिन वह उपवन में क्रीड़ा करने गयी, तो सरोवर में हंस-मिथुन को देखकर उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया, जबकि वह स्वयं हंसिनी थी, उसके पति हंस को किसी व्याघ्र ने मार डाला था। वह भी उसके प्रेम के कारण उसके साथ जलकर मर गयी थी। यह याद करके उसे मूर्च्छा आ गयी । यहीं से प्रेम और विरह की जागृति होती है। सचेत होने पर वह अपने प्रियतम की खोज में निकल पड़ी। उसने एक सुन्दर चित्रपट बनाया, जिसमें हंस युगल का जीवन चित्रित था । इसकी सहायता से उसने अनेक विपत्तियाँ सहने के बाद अपने पूर्वजन्म के पति को ढूंढ़ लिया। इस प्रकार उसे अपने इष्ट की प्राप्ति होती है। वह और उसका प्रेमी गन्धर्व विवाह बन्धन में बँधते हैं। परदेश में भटकते हुए वे काली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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