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________________ ६६ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक कमल, कुमुद, कुन्द, गन्धर्वदत्ता, लभ्य पुन्नाग, पनस, नालिकेर, पारापत, भव्यगज, नमेरूक (वेगवती लम्भ), सप्तवर्ण, तिन्दूसक (बालचन्द्रालम्भ), विल्व (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ), अक्षोट (अखरोट), प्रियाल (चिरौजी), कोल (बेर), तिन्दुक, इंगुद, कसार-नीवार (केतुमती-लम्भ) आदि का उल्लेख तो किया ही है, विशेष वनस्पतियों में कल्पवृक्ष, नन्दिवत्स, चित्ररस और रक्ताशोक (चैत्यवृक्ष) का भी वर्णन किया है। ___ कथाकार ने कमल के फूलों, कदलीवृक्ष और कुसुमित अशोकवृक्षों का तो बार-बार चित्रण किया है। किन्तु, चैत्यवृक्ष के सन्दर्भ में रक्ताशोक की अधिक चर्चा की है और इसे कल्पवृक्ष के समान कहा है। अर स्वामी नाम के अट्ठारहवें तीर्थङ्कर ने जब महाभिनिष्क्रमण किया था, तब उनकी शिविका में कल्पवृक्ष के फूल सजे थे और उन पर भौरे गुंजार कर रहे थे तथा उसके गुम्बद में विद्रुम, चन्द्रकान्त, पद्मराग, अरविन्द, नीलमणि और स्फटिक जड़े हुए थे। अरस्वामी उस शिविका पर सवार होकर सहस्राम्रवन पधारे और वहाँ सहकारवृक्ष (आम्रवृक्ष) के नीचे आकर बैठे। उनके बैठते ही तत्क्षण आम्रवृक्ष मंजरियों से मुस्करा उठा, कोयल मीठी आवाज में कुंकने लगी और काले भौरे गुंजार करने लगे। इस प्रकार सहस्राम्रवन का प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण समस्त प्राणी-मात्र के लिए आनन्दप्रद हो उठा (केतुमतीलम्भ)। __ जैन चिन्तकों ने पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से वनस्पति जीवों की रक्षा पर विशेष विचार किया है और वनस्पति के प्रकारों का वैज्ञानिक अध्ययन किया है। गोम्मटसार (आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, ईसा की १०वीं शती) में वनस्पति पर विचार करते हुए लिखा है कि वनस्पति के कई प्रकार होते हैं। जैसे- कुछ वनस्पतियां मूलबीजात्मक होती हैं, तो कुछ स्कन्धबीजात्मक। इसी प्रकार, कुछ वनस्पतियाँ 'बीजरुहा' होती हैं, तो कुछ ‘सम्मूर्छिम'। जिन वनस्पति-जीवों का मूल ही बीज होता है, वे 'मलबीज' कहे जाते हैं (जैसे- अदरख, हल्दी आदि)। जिनका (वनस्पति-जीवों) अग्रभाग ही बीज होता है, अर्थात् टहनी की कलम लगाने से वे उत्पन्न होते हैं, 'अग्रबीज' कहलाते हैं और पर्व (गाँठ या पोर) ही जिनके बीज होते हैं, वे ‘पर्वबीज' हैं (जैसे- ईख, बेंत आदि)। पुन: जो वनस्पति-जीव कन्द से उत्पन्न होते हैं, वे 'कन्दबीज' माने जाते हैं (जैसे- आलू, ओल आदि) इसी प्रकार जो वनस्पति-जीव स्कन्ध से उत्पन्न होते हैं, वे 'स्कन्धबीज' हैं (जैसे- कटहल, धतूरा आदि) और फिर, जो वनस्पति-जीव से उत्पन्न होते हैं, वे बीजरुह' हैं (जैसे- चावल, गेहूँ, अरहर आदि); किन्तु इन सबसे भिन्न जो वनस्पति-जीव नियत बीज आदि की अपेक्षा के बिना केवल मिट्टी और जल के सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं, वे ‘सम्मूर्छिम' कहलाते हैं (जैसेफफूंद, काई, सेवार आदि)। उपर्युक्त विवरण से वनस्पति-जीव की व्यापकता की सूचना मिलती है। इसलिए, पेड़ काटने की बात तो दूर, पत्ते और टहनी तक तोड़ना भी पर्यावरण की प्ररक्षा की दृष्टि से अनुचित है, जीव-वध के समान क्रूर कार्य है। आज पत्तल और दतुवन के नाम पर पर्यावरण के प्रमुख उपकरण वनस्पति का नित्य ही महाविनाश हो रहा है। जैन चिन्तकों ने इस ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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