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________________ ६४ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक लिखा है कि जैनधर्म का मूल जीवदया है। संसारी मनुष्य कन्द, मूल, फूल, फल और पत्ते का उपभोग द्वारा प्राय: वनस्पति-कायिक जीवों को कष्ट पहुँचाते हैं। आगम-प्रमाण से वनस्पतियों को जीव मानकर उन पर श्रद्धा रखनी चाहिए। __मनुष्य विषयोपलब्धि के क्रम में जिस प्रकार अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार वनस्पति-जीव भी जन्मान्तर-क्रियाओं की भावलब्धिवश अपनी स्पर्शेन्द्रिय से विषय का अनुभव करते हैं। वनस्पति-कायिक जीवों के लिए भी किसी लब्धि-विशेष से विषय की उपलब्धि की बात कही जाती है। जैसे- मेघ का गर्जन सुनकर अङ्कुर या प्ररोह आदि का उद्गम होता है जिससे वनस्पति-कायिक जीवों की शब्दोपलब्धि की सूचना मिलती है। आधुनिक वैज्ञानिकों की भी यह मान्यता है कि रेडियो आदि की मधुर आवाज के सुनने से फसलों को संवर्द्धन प्राप्त होता है। इससे भी वनस्पति में शब्द की उपलब्धि की शक्ति विद्यमान रहने की सूचना मिलती है। साथ ही, इससे प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु के, वनस्पतियों में भी मनुष्य की तरह जैविक चेतना रहने के सिद्धान्त का समर्थन होता है। - और फिर, वृक्ष आदि का सहारा पाकर बढ़ने वाली लता आदि को रूप की उपलब्धि डालने है। इसी प्रकार, धूप देने से वनस्पति-जीव को गन्ध की उपलब्धि होती है तथा पानी डालने से ईख आदि वनस्पति को रस की उपलब्धि होती है और प्ररोह, जड़ आदि काट देने से उत्पन्न सिकुड़न से वनस्पति की स्पोपलब्धि की सूचना मिलती है। पुनः रात्रि में कमल आदि के पत्तों या दलों के सिमटने से उनकी नींद का संकेत प्राप्त होता है और प्रात: दलों के खुलने से उनके जागने की स्थिति द्योतित होती है और फिर, कवि-प्रसिद्धि के अनुसार, स्त्रियों के नूपुरयुक्त पैरों के आघात से अशोक आदि पेड़ों के विकसित होने की जानकारी मिलती है और इसी प्रकार, असमय में फूल-फल के उद्गम से सप्तपर्ण वनस्पति की हर्षानुभूति का बोध होता है। आचार्य संघदासगणि सकल वनस्पति में जीव की सिद्धि को प्रमाणित करते हुए कहते हैं-- जिस प्रकार एक से अधिक इन्द्रियों वाले जीव उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं तथा खाद आदि उचित पोषण प्राप्त होने से स्निग्ध कान्ति वाले, बलसम्पन्न, निरोग एवं आयुष्यवान (दीर्घायु) होते हैं। पुन: खाद आदि के अभाव या कुपोषण से कृश, क्षीण, दुर्बल और रुग्ण होकर मर जाते हैं, उसी प्रकार केवल एक इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) से युक्त वनस्पति जीवों में उत्पत्ति और वृद्धि का धर्म दृष्टिगत होता है। इसी प्रकार वे वनस्पति-जीव मीठे पानी से सिक्ता होने पर बहत फल देने वाले, चिकने पत्तों से सुशोभित, सघन और दीर्घायु होते हैं और फिर, तीते, कड़वे, कसैले तथा खट्टे जल से सींचने पर वनस्पति-जीवों के पत्ते मुरझा जाते हैं या पीले पड़ जाते हैं या रुखे और सिकुड़े हुए हो जाते हैं तथा फलहीन होते हैं और अन्त में वे मर जाते हैं। इस प्रकार के कारणों से उनमें जीव है, ऐसा मानकर उनकी उचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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