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जैन संस्कृति में पर्यावरण-चेतना
विद्यावाचस्पति डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव .. 'पर्यावरण' शब्द 'वातावरण' का ही पर्यायवाची है, जिसका सामान्य अर्थ होता हैआस-पड़ोस की परिस्थिति अथवा आस-पास का परिसर। पृथ्वी, पर्वत, वायु, जंगल, पेड़-पौधे या वनस्पति, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि से मिलकर ही पर्यावरण बना है। पर्यावरण का जीवन से अभिन्न सम्बन्ध है। कहना तो यह चाहिए कि पर्यावरण ही जीवन है।
जैन संस्कृति मूलत: अहिंसावादी संस्कृति है। इसलिए जैनशास्त्र में जीव-हिंसा का सर्वथा निषेध किया गया है। आचारांगसूत्र में षट्जीवनिकायों का वर्णन है। वे षट् श्रीवनिकाय निम्न हैं- १. पृथ्वीकाय, २. अपकाय, ३. अग्निकाय, ४. वायुकाय, ५. कास्पतिकाय और ६. त्रसकाय। त्रसकाय के भी चार विभाग हैं- १. देव, २. नारक, ३. मनुष्य और तिर्यञ्च (पशु-पक्षी)। अपने ही कर्मों से जीवात्मा मनुष्य-योनि से च्युत होकर वनस्पति-योनि में भी जाती है। ... वनस्पति भी जीव हैं, इसलिए उसे 'वनस्पतिकायिक जीव' कहते हैं। इसी से उसका काटना-छाँटना आदि कार्य जैन-संस्कृति में वर्जित है। इस दृष्टि से जैन-संस्कृति में पर्यावरण की चेतना, जैनधर्म जब से अस्तित्व में आया, तब से विकसित-विवर्धित रही है। . मूलाचार (वट्टकेर, ईसा पाँचवी-छठी शती) नामक आचार-प्रधान ग्रन्थ में लिखा है कि वनस्पति ऐकेन्द्रिय जीव हैं। इसकी नसें नहीं दिखायी पड़तीं। यह हरितकाय है। इसे श्रीव-स्वरूप जानकर इसके कृन्तन-रूप हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैनाचार में हरितकाय बेड़-पौधों की टहनी को तोड़ना भी मना है। फलों में भी कच्चे फलों को तोड़ना मना है, जो फल पककर स्वयं गिरते हैं, वे ही ग्राह्य हैं, क्योंकि वे अचित्त (अजीव) और अनवद्य होते हैं।
जैन चिन्तकों ने पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से वनस्पति को जीव मानकर उस पर दयाभाव रखने का आदेश दिया है। ईसवी-सन् की छठी-सातवीं शती के महान् कथाकार आचार्य संघदासगणि ने अपनी प्राकृत-कथाकृति वसुदेवहिण्डी के ‘बन्धुमती लम्भ' में
*. पी०एन० सिन्हा कॉलोनी, भिखनापहाड़ी, पटना-८०० ००६
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