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________________ प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन से 'कन्' प्रत्यय होने पर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है - नानासंग्रह, फुटकर वस्तुओं का संग्रह और विविध वस्तुओं का अध्याय, पर जैन साहित्य में 'प्रकीर्णक' एक विशेष प्रकार का पारिभाषिक शब्द है। आचार्य आत्माराम जी ने प्रकीर्णक की व्याख्या निम्न प्रकार की है “अरिहन्त के उपदिष्ट श्रुतों के आधार पर श्रमण निर्ग्रन्थ भक्ति भावना तथा श्रद्धावश मूल भावना से दूर न रहते हुए जिन ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, उन्हें 'प्रकीर्णक' कहते हैं । " प्रकीर्णकों की रचना करने का दूसरा उद्देश्य यह भी समझा जा सकता है कि इनसे सर्वसाधारण आसानी से धर्म की ओर उन्मुख हो सके। : ४५ प्राचीन आगम ग्रन्थों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक-अमुक ग्रन्थ प्रकीर्णक के अन्तर्गत हैं। नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र दोनों में आगमों के विभिन्न वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का उल्लेख नहीं है । यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में, आज हम जिन्हें प्रकीर्णक मानते हैं, उनमें से ९ ग्रन्थों का उल्लेख कालिक एवम् उत्कालिक आगमों के अन्तर्गत आता है । कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति एवम् उत्कालिक के अन्तर्गत देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रकवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरण विभक्ति आता है। आगमों का अङ्ग, उपाङ्ग, छेदसूत्र, मूलसूत्र, चूलिका एवं प्रकीर्णक के रूप में विभाजन सर्वप्रथम आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रथा (ईसा की १४वीं शताब्दी) में मिलता है। अङ्ग आगमों में ‘प्रकीर्णक' का उल्लेख सर्वप्रथम समवायाङ्गसूत्र में मिलता है। प्रो० सागरमल जैन के अनुसार प्रारम्भ में अङ्ग आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक एवम् उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक कहलाते थे। उन्होंने इसके प्रमाणस्वरूप षट्खण्डागम की धवला टीका का उल्लेख किया है जिसमें १२ अङ्ग आगमों से भिन्न अङ्गबाह्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक नाम दिया है। “अङ्गबहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया"। इसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी प्रकीर्णक ही कहा गया है । 4 यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से अभिहित अथवा प्रकीर्णक वर्ग में समाहित सभी ग्रन्थों के नाम के अन्त में प्रकीर्णक शब्द तो नहीं मिलता है, मात्र कुछ ही ग्रन्थ ऐसे हैं जिनके नाम के अन्त में प्रकीर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है फिर भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णको का अस्तित्व अतिप्राचीन काल में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो अथवा न किया गया हो। नन्दीसूत्रकार ने अङ्ग आगमों को छोड़कर आगम रूप में मान्य अन्य सभी ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहा है । (नन्दीसूत्र, सम्पा०- ० मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, ई० सन् १९८२, सूत्र ८१) अतः प्रकीर्णक शब्द आज जितने सङ्कुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था । उमास्वाति और देववाचक के समय में तो अङ्ग आगमों के अतिरिक्त शेष सभी आगमों को प्रकीर्णकों में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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