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________________ प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन डॉ० अतुलकुमार प्रसाद सिंह आगम-साहित्य मुख्यतः दो भागों में विभक्त है। अङ्गबाह्य आगम और अङ्गप्रविष्ट आगम। अङ्गप्रविष्ट आगम वह है जिसका उपदेश तीर्थङ्करों ने स्वयं दिया और गणधरों ने जिसे सूत्ररूप में संग्रहीत किया। ऐसे १२ अङ्ग आगम हैं। ये हैं— आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपाशकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। इसमें दिगम्बर मान्यतानुसार दृष्टिवाद के कुछ भाग (कसायपाहुडसुत्त और षटखण्डागम) को छोड़कर सभी आगम लुप्त माने गये हैं तो श्वेताम्बर मान्यतानुसार बारहवें आगम दृष्टिवाद का विलोप हो चुका है। अङ्गबाह्य आगम वे हैं जो सीधे तीर्थङ्करों की वाणी नहीं हैं अपितु जिनमें तीर्थङ्करों के विचारों की व्याख्या अन्य आचार्यों द्वारा की गयी है। इसमें १२ उपाङ्ग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, १० प्रकीर्णक एवं २ चूलिका-सूत्र माने जाते हैं। नन्दीसूत्र में इन अङ्गबाह्य आगमों को प्रथमत: दो भागों में रखा गया है- आवश्यक एवं आवश्यक व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक आदि छ: ग्रन्थ हैं। आवश्यक व्यतिरिक्त ग्रन्थों को कालिक और उत्कालिक दो भाग में विभक्त किया गया है। वर्तमान में कुल ४६ आगम (दृष्टिवाद को छोड़कर ४५) श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-सम्प्रदाय में मान्य हैं। इनमें प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के तेरापंथ एवं स्थानकवासी स्वीकार नहीं करते हैं। इस प्रकार विशाल प्रकीर्णक साहित्य साम्प्रदायिक दृष्टि से पूरी तरह उपेक्षित है। परम्परागत मान्यतानुसार जिस तीर्थङ्कर के संघ में जितने श्रमण होते हैं उनमें से प्रत्येक के द्वारा एक-एक प्रकीर्णक की रचना का उल्लेख है, इसी कारण समवायाङ्गसूत्र में ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के उतने ही प्रकीर्णकों का उल्लेख है। इसी प्रकार महावीर के तीर्थ में चौदह हजार श्रमणों द्वारा इतने ही प्रकीर्णक रचने की मान्यता है। प्रकीर्णक 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु से 'क्त' प्रत्यय सहित निष्पन्न 'प्रकीर्ण' शब्द *. पार्श्वनाथ विद्यापीठ में आयोजित “जैन विद्या अध्ययन : समीक्षा एवं सम्भावनायें" नामक अखिल भारतीय संगोष्ठी में पठित शोध आलेख. **. दैनिक जागरण सम्पादकीय विभाग, बरेली २४३००१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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