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________________ श्रमण / जनवरी - जून २००२ संयुक्तांक हिन्दी में ध्वनियाँ प्रायः वही हैं जो मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं में मिलती थीं। स्वरों में ऋ का प्रयोग संस्कृत के तत्सम शब्दों में मिलता है; किन्तु इसका उच्चारण रि होता है । ऐ और औ का उच्चारण संस्कृत के समान अइ, अउ न होकर अए, (ऐसा), अओ, (औरत) रूप में परिवर्तित हो गया है। अंग्रेजी के प्रभाव से फुटबॉल, कॉलेज आदि शब्दों में व्यवहृत ऑ ध्वनि हिन्दी के पढ़े-लिखे लोगों में प्रचलित हो गयी है। व्यंजनों में श् और ष् में भेद नहीं रहा । ष का उच्चारण भी प्रायः श् के समान ही होता है। संयुक्ताक्षर ज्ञ का उच्चारण गय, ग्य, ज्यँ आदि रूपों में स्थान भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जाता है । व्यंजनों में ड और ढ़ नयी ध्वनियाँ हैं। इसी प्रकार अरबी और फारसी के प्रभाव से क़ ख़ ग़ज़ फ़ आदि ध्वनियों का भी विकास हुआ। इनका प्रयोग अरबी और फारसी के तत्सम शब्दों में होता है; किन्तु रूढ़िवादी इनका उच्चारण देशी ध्वनियों के समान क ख ग ज फ ही करते हैं। जैसे— कागज़ के स्थान पर कागज । ५ ४० : वैयाकरणों ने प्राकृत व्याकरण में प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश का विचार किया है। सिंहराज का कथन है कि अपभ्रंश में प्रायः शौरसेनी की भाँति कार्य होता है । ६ प्राकृतरूपावतार की भाँति प्राकृतमणिदीप, प्राकृतशब्दानुशासन, आर्षप्राकृत व्याकरण तथा चण्डकृत प्राकृत प्रकाश में शौरसेनी प्राकृत के अन्तर्गत अपभ्रंश का विधान मिलता है। (अ) उपनागर स्पष्ट रूप से आचार्य मार्कण्डेय और आचार्य हेमचन्द्र अपभ्रंश का विवरण देते हैं। प्राकृत-सर्वस्व में अपभ्रंश के मुख्य तीन भेद कहे गये हैं- नागर, ब्राचड़ और उपनागर । ७ अन्य अपभ्रंशों में बहुत ही सूक्ष्म अन्तर होने से उनका निर्देश अलग से नहीं किया गया । ब्राचड़ सिन्ध की बोली है। उसका जन्म ही सिन्ध में हुआ है। ' नागर से अभिप्राय गुजरात का तथा उपनागर से तात्पर्य सिन्ध और गुजरात के मध्यवर्ती मालव, मारवाड़, पंजाब आदि से है। वैयाकरणों के इन उल्लेखों से पता चलता है कि अपभ्रंश प्रादेशिक बोलियों के रूप में फैली हुई थी, परन्तु वैयाकरण लोग उनका विवरण देने में रुचि नहीं रखते थे, क्योंकि वे रूढ़ भाषा का विचार करते थे। इसके अतिरिक्त साहित्य की भाषा में जो नाम-रूप मिलते थे, उनका पूरा-पूरा अभिधान है। वैयाकरणों की अपेक्षा संस्कृत-साहित्य के समालोचकों ने अपभ्रंश का परिचय ठीक से दिया है। आचार्य भामह संस्कृत - प्राकृत की भाँति अपभ्रंश को भी काव्य की भाषा कहते हैं। उन्होंने अपभ्रंश के प्रादेशिक भेदों के आधार पर छह भेद बताये हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने शिष्ट और ग्राम्य के भेद से अपभ्रंश के दो रूपों की चर्चा की है। १° किन्तु प्राकृतसर्वस्वकार मार्कण्डेय ने भाषा के चार विभाग माने हैं— भाषा, विभाषा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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