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... भारतीय आर्य भाषाओं की विकास-यात्रा में अपभ्रंश का स्थान : ४१ अपभ्रंश और पैशाची। भाषा के पाँच भेद हैं- महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती तथा मागधी। विभाषाएँ भी पाँच कही गयी हैं। शकारी, चाण्डाली, शाबरी, आभीरी और शाक्वी (शाखी)। उन्होंने अपभ्रंश के नागर, उपनागर और ब्राचड़ तीन मुख्य भेद माने हैं तथा आद्री, द्राविड़ी आदि सत्ताइस भेद कहे हैं। अधिकतर वैयाकरण प्राकृत का ही प्रधान रूप से विचार करते हुए लक्षित होते हैं। सभी प्राकृत वैयाकरणों ने प्राकृत के महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी
और पैशाची- इन चार भेदों का व्याकरण दिया है। केवल प्राकृतशब्दानुशासन और हेमचन्द्रकृत शब्दानुशासन में इनके अतिरिक्त चूलिका और पैशाची अपभ्रंश का अधिक विवरण है। षड्भाषाचन्द्रिका में भी उक्त छहों भाषाओं का विचार हुआ है। यदि हम सभी उल्लेखों पर विचार करें तो देशी भेदों से अपभ्रंश के कई भेदों की कल्पना करनी होगी; किन्तु उसे उचित नहीं कहा जा सकता। फिर, उपलब्ध साहित्य से उसकी कोई संगति भी नहीं बैठती, इसलिए केवल साहित्यिक रचनाओं को देखते हुए अपभ्रंश के अनिवार्यत: दो भेद माने जाते हैं- पूर्वी और पश्चिमी। किन्तु डॉ० तगारे ने पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी तीन भेद माने हैं। ११
यद्यपि अपभ्रंश साहित्य उत्तर भारत को छोड़ कर तीनों भागों में प्राप्त होता है पर भाषा की दृष्टि से हम उसे मुख्य दो रूपों में विभाजित कर सकते हैं। दक्षिण भारत से प्राप्त साहित्य मूलतः पश्चिमी या शौरसेनी अपभ्रंश में निबद्ध हैं। पूर्वी अपभ्रंश मागधी प्राकृत से प्रभावित है। साहित्य में महाराष्ट्री तथा शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचलन रहा है, क्योंकि उक्त दोनों प्राकृत संस्कृत के अधिक निकट रही है।१२ "शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृति: संस्कृतं'' फिर अपभ्रंश में शौरसेनी के अनुसार भाषा-विधान है।१३ इसलिए शौरसेनी अपभ्रंश की मुख्यता का सहज में निश्चय हो जाता है। पूर्वी अपभ्रंश में हमें सिद्ध-साहित्य लिखा हुआ मिलता है, जो मागधी के अधिक निकट है; किन्तु दक्षिणी अपभ्रंश की कोई स्पष्ट भेदक रेखा नहीं खींची जा सकती। अतएव अपभ्रंश के मुख्य दो तथा प्रादेशिक अनेक भेद माने जा सकते हैं। अन्य भेदों में सामान्य रूप से कहीं-कहीं अन्तर दिखायी देता है, जिसका उल्लेख प्राकृत वैयाकरणों ने अत्यन्त संक्षिप्त रूप में किया है। इसी प्रकार भाषा की दृष्टि से देशी और साहित्यिक भेद से अपभ्रंश के दो रूप कहे जा सकते हैं। स्वयम्भू ने अपनी भाषा को ग्रामीण जनों की भाषा से हीन देशी भाषा कहा है। देशी लोकभाषा का वह रूप था जो जनसामान्य में प्रचलित था लेकिन साहित्यिक भाषा केवल शिष्ट जनों की थी। समाज में भाषा विषयक यह अन्तर वैदिक युग से लेकर आज तक बराबर हुआ है। इसका एकमात्र कारण सामाजिक वर्ग-भेद माना जा सकता है। (य) शौरसेनी
संस्कृत के नाटकों में स्त्री-पात्रों तथा मध्य कोटि के पुरुष पात्रों द्वारा शौरसेनी का प्रयोग किया जाता था। यही भाषा साहित्यिक रूप में चिरकाल तक भारत के विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त
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