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२० : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक
एवं प्रमाणोपेत विश्लेषण किया है वह इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि जैनदर्शन में सिद्धान्तों के विकास की प्रक्रिया निरन्तर गतिशील रही है। उनके इस मत से मैं सहमत भी हूँ, क्योंकि ऐसा ही एक सिद्धान्त अनेकान्तवाद भी है जिसके मूल-बीज आगमों में एवं तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध हैं तथापि उसका सुव्यवस्थित रूप आचार्य सिद्धसेन दिवाकर एवं आचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है। फिर भी गुणस्थान-सिद्धान्त को अनेकान्त के दार्शनिक विकास की भाँति नहीं देखा जा सकता, क्योंकि इसके व्यवस्थापन का आधार प्राचीन आगम या कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य रहा है। आचाराङ्गनियुक्ति में प्राप्त गुणश्रेणि की गाथाओं के सम्बन्ध में ऐसा डॉ० सागरमल जी ने स्वीकार भी किया है कि नियुक्ति में ये गाथाएँ किसी प्राचीन कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य से ली गयी प्रतीत होती हैं। डॉ० सागरमल जी का कथन है कि गुणस्थान-सिद्धान्त पाँचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया। उनका यह कथन गुणस्थान शब्द के प्रयोग एवं उनके १४ नामों के उल्लेख के सम्बन्ध में सत्य है। यहाँ पर यह बात अवश्य कहना चाहूँगा कि 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग जीव की आध्यात्मिक अवस्थाओं को प्रकट करने की दृष्टि से परिष्कृत या परिमार्जित प्रयोग है। इसके पहले इन्हें जीवसमास (षट्खण्डागम एवं सर्वार्थसिद्धि, १.८, पृ० २२) अथवा जीवस्थान (समवायाङ्गसूत्र) कहा गया है। जीवस्थान या जीवसमास प्राचीन नाम है तथा 'गुणस्थान' नया नाम है जिसका प्रारम्भिक प्रयोग कब हुआ यह नहीं कहा जा सकता; किन्तु तत्त्वार्थसूत्र पर पूज्यपाद देवनन्दी की टीका सर्वार्थसिद्धि (लगभग छठी शती) में गुणस्थान शब्द का प्रयोग (सर्वार्थसिद्धि १.८, पृ० २२) सुपरिचित-सा प्रतीत होता है। वहाँ देवनन्दी ने जीवसमास एवं गुणस्थान को पर्यायवाची माना है। आचाराङ्गसूत्र में 'जे गुणे से आवट्टे जे आवट्टे से गुणे' (१.१.५,सूत्र ४१) में प्रयुक्त 'गुण' शब्द का प्रयोग वैषयिक सुखों के अर्थ में हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र (५.३७) एवं उत्तराध्ययनसूत्र में 'गुण' शब्द 'द्रव्य' के आवश्यक लक्षण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। फलत: यह जीव के चेतना गुण के लिये भी प्रयोग में आने लगा। इस प्रकार गुण+स्थान (गुणानां स्थानम्) से निष्पन्न 'गुणस्थान' शब्द चेतना की विभिन्न
अवस्थाओं को चित्रित करता है। ४. तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध सूक्ष्म सम्पराय, बादर सम्पराय, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत,
देशविरत आदि शब्दों तथा कर्मनिर्जरा के प्रसंग में प्राप्त सम्यग्दृष्टि आदि १० नामों से यह तो ज्ञात होता है कि आध्यात्मिक अवस्थाओं के लिये अनेक शब्द निर्धारित हो चुके थे; किन्तु गुणस्थान शब्द का प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र के बाद के काल में ही हुआ है अन्यथा गुणस्थानों का निरूपण आचार्य उमास्वाति अवश्य करते। उन्होंने
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