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________________ डॉ० सागरमल जैन द्वारा गुणस्थान-सिद्धान्त के विकास क्रम की गवेषणा : १९ गुणस्थान-सिद्धान्त के निर्माण के सम्बन्ध में डॉ० सागरमल जैन कहते हैं कि षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों के ग्यारह स्थानों में मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्र ये तीन स्थान और जुड़ कर १४ गुणस्थानों का निर्माण हुआ है। उनका स्पष्ट मन्तव्य है कि गुणस्थान-सिद्धान्त की अवधारणाओं का विकास कर्म-निर्जरा के प्रसंग में प्रतिपादित अवस्थाएँ या गुणश्रेणियाँ ही रही हैं।२६ गुणस्थान-सिद्धान्त के उल्लेख-अनुल्लेख अथवा इसके बीजों की प्राप्ति के आधार पर डॉ० सागरमल जैन ने कुछ ग्रन्थों का पौर्वापर्य सिद्ध किया है, जो इस प्रकार हैं१. तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य के रचयिता (उमास्वाति) एक ही हैं। २. आचाराङ्गनियुक्ति सम्भवत: तत्त्वार्थसूत्र के पहले रची गयी हो। ३. कसायपाहुडसुत्त तत्त्वार्थसूत्र का समकालीन है या किञ्चित परवर्ती है। ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा कसायपाहुड के पश्चात् एवं आचार्य कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा के पूर्व की रचना है। ५. षखण्डागम, भगवती आराधना एवं मूलाचार की रचना तत्त्वार्थसूत्र के बाद हुई। तत्त्वार्थसत्र एवं उसका भाष्य तीसरी-चौथी शती में निर्मित है तो समवायाङ्ग का गुणस्थान सम्बन्धी विवरण एवं षट्खण्डागम पाँचवीं शती के हैं तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीकाएँ एवं भगवतीआराधना, मूलाचार, समयसार, नियमसार आदि ग्रन्थ (जो गुणस्थान का विवरण देते हैं) छठी शती या उसके पश्चात् के हैं। डॉ० जैन ने यह समय तत्त्वार्थसत्र को तीसरी-चौथी ई० का मानकर निर्धारित किया है। यदि तत्त्वार्थसूत्र को द्वितीय-तृतीय शती की रचना मानें तो गुणस्थान का उल्लेख करने वाली रचनाओं को पांचवीं शती या उसके पश्चात् की माना जा सकता है। गुणस्थान-सिद्धान्त पर डॉ० सागरमल जैन ने जो विश्लेषणात्मक एवं शोधपरक विचार किया है यह जैन विचारकों के लिये चिन्तन की नयी दिशा प्रदान करता है। डॉ० जैन की इस कृति को पढ़ने के पश्चात् जो विचार मेरे मन में उठे हैं, वे इस प्रकार हैं१. भगवान् महावीर ने अर्थरूप में जो उपदेश दिया था और शब्द रूप में जो गणधरों द्वारा गूंथा गया था उसके विशृङ्खलित हो जाने के कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उनमें से एक समस्या आध्यात्मिक विकास के विभिन्न आयामों को निरूपित करने की भी रही है। आध्यात्मिक विकास की जो अवस्थाएँ प्रारम्भिक काल में प्रतिपादित रही होंगी, उनका उल्लेख करने वाले प्राचीन ग्रन्थों के अनुपलब्ध होने से यह समस्या उत्पन्न हुई। इसके विपरीत डॉ० सागरमल जैन ने गुणस्थान-सिद्धान्त का जो तार्किक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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