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________________ ४. १८ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक श्वेताम्बर-परम्परा में ११ गुणश्रेणियों का अन्तिम उल्लेख देवेन्द्रसूरि विरचित शतक नामक पञ्चम कर्मग्रन्थ में प्राप्त होता है। २२ दिगम्बर-साहित्य में गुणस्थान-सिद्धान्त के बीजों की गवेषणा करते हुए उन्होंने कार्तिकेयानुप्रेक्षा एवं षट्खण्डागम पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। डॉ० सागरमल जैन ने स्पष्ट किया है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी गुणस्थान-सिद्धान्त की चर्चा नहीं है और न उपशमश्रेणी और क्षायिकश्रेणी के अलग-अलग विकास की बात कही गयी है। गुणस्थान-सिद्धान्त के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि जो विशिष्ट नाम हैं उनका भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कोई उल्लेख नहीं है; किन्तु जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान की अवधारणा का अभाव होते हुए भी कर्म निर्जरा के आधार पर सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत आदि दस अवस्थाओं का चित्रण है उसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी निर्जरानुप्रेक्षा के अन्तर्गत कर्मनिर्जरा के आधार पर बारह अवस्थाओं का चित्रण हुआ है। ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं२३१. मिथ्यात्वी, २. सम्यक्दृष्टि (दृष्टि), ३. अणुव्रतधारी, ४. महाव्रती, ५. प्रथमकषायचतुष्क वियोजक, ६.क्षपकशील, ७. दर्शनमोहत्रिक (क्षीण), ८. कषायचतुष्क उपशमक, ९. क्षपक, १०. क्षीणमोह ११. सयोगीनाथ और १२. अयोगीनाथ। तत्त्वार्थसूत्र और आचाराङ्गनियुक्ति में प्राप्त होने वाले दस नामों के अतिरिक्त जो दो नाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा में अधिक प्राप्त हैं, वे हैं- मिथ्यादृष्टि और अयोगीकेवली। डॉ० सागरमल जैन का कथन है कि इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ आचाराङ्गनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् का है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा और कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए डॉ० सागरमल जैन ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा को प्राचीन माना है।२४ षट्खण्डागम में गुणस्थान-सिद्धान्त पूर्णत: विकसित रूप में प्राप्त होता है। इसका सत्प्ररूपणाखण्ड १४ गुणस्थानों की विस्तृत विवेचना करता है। यह अवश्य है कि इसमें गुणस्थान शब्द के स्थान पर जीवसमास शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। डॉ० सागरमल जैन का मन्तव्य है कि षट्खण्डागम गुणस्थान-सिद्धान्त का एक विकसित ग्रन्थ है। षट्खण्डागम में विकसित गुणस्थान-सिद्धान्त के साथ-साथ वे बीज भी उपस्थित हैं जिनसे गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है। षट्खण्डागम की चूलिका में जो दो गाथाएँ उद्धृत हैं२५ वे आचाराङ्गनियुक्ति में से ली गयी प्रतीत होती हैं। गुणस्थान-सिद्धान्त के इन मूल बीजों को संगृहीत करने की यह प्रवृत्ति दिगम्बर-परम्परा में आगे गोम्मटसार के काल तक चलती रही है। षट्खण्डागम की मूलगाथा की अपेक्षा व्याख्यासूत्रों में विकास और अर्थ की स्पष्टता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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