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________________ डॉ० सागरमल जैन द्वारा गुणस्थान-सिद्धान्त के विकास क्रम की गवेषणा : १७ उपशान्त मोह एवं क्षीणमोह के बीच दोनों में क्षपक की उपस्थिति मानी गयी है; किन्तु गुणस्थान-सिद्धान्त में ऐसी कोई अवस्था नहीं है। इससे डॉ० सागरमल जैन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि कसायपाहुड और तत्त्वार्थसूत्र में कर्म-विशुद्धि की अवस्थाओं के प्रश्न पर बहुत अधिक समानता है। मात्र मिश्र (सम्यक् मिथ्यादृष्टि) और सूक्ष्म सम्पराय की उपस्थिति के आधार पर उसको तत्त्वार्थ की अपेक्षा किञ्चित् विकसित माना जा सकता है। दोनों की शब्दावली क्रम और नामों की एकरूपता से यही प्रतिफलित होता है कि दोनों एक ही काल की रचनाएँ हैं।१८ श्वेताम्बर-साहित्य में गुणस्थान-सिद्धान्त के बीजों की खोज करते हुए डॉ० सागरमल जैन ने प्रतिपादित किया है कि आचाराङ्गनियुक्ति के सम्यक्त्व पराक्रम अध्याय की नियुक्ति में तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की चर्चा प्राप्त होती है जिसमें सम्यक्त्वोत्पत्ति श्रावक विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्त, क्षपक, क्षीणमोह और जिन इस दस अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है।१९ आचारागनियुक्ति कौन से भद्रबाहु की रचना है, इस पर भी डॉ० सागरमल जैन ने विस्तार से विचार किया है और वे इस निष्कर्ष पर पहँचे हैं कि आर्यशिवभूति के शिष्य आर्यभद्र द्वारा ई० द्वितीय-तृतीय शताब्दी में नियुक्तियों की रचना की गयी है।२० डॉ० जैन ने यह संकेत दिया है कि आचाराङ्गनियुक्ति में आध्यात्मिक विकास या गुणश्रेणियों की दस अवस्थाओं की चर्चा उसी प्रकार प्रक्षिप्त है जिस प्रकार षट्खण्डागम के वेदनाखण्ड की चूलिका में इन्हें अवतरित किया गया है। डॉ० जैन कहते हैं- ऐसा प्रतीत होता है कि ये गाथाएँ धवला टीका और गोम्मटसार में भी अवतरित की गयी हैं। इसी प्रकार ये गाथाएँ नियुक्तियों, कर्मग्रन्थों तथा पञ्चसंग्रह में भी अवतरित की जाती रही हैं। नियुक्तियों के पश्चात् श्वेताम्बर-परम्परा में ये गाथाएँ कुछ पाठभेद के साथ शिवशर्मसूरि प्रणीत कर्मप्रकृति में उपलब्ध होती हैं।२१ डॉ० जैन का मन्तव्य है कि आवश्यकनियुक्ति की प्रतिक्रमण नियुक्ति में गाथा संख्या १२८७ के पश्चात् की दो गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं। जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि हरिभद्रसूरि ने आवश्यकनियुक्ति पर टीका करते हुए उन्हें नियुक्ति गाथा के रूप में स्वीकार नहीं किया है अपितु इन्हें किसी संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है। अत: यह सुस्पष्ट है कि नियुक्ति साहित्य में १४ गुणस्थानों की अवधारणा अनुपलब्ध है। नियुक्तियों में तत्त्वार्थसूत्र के समान ही दस गुण श्रेणियों की चर्चा है। शिवशर्म द्वारा रचित कर्म-प्रकृति में भी ये गाथाएँ ली गयी हैं। इतनी विशेषता अवश्य है कि 'जिणे य दुविहे' कह कर सयोगी और अयोगी इन दो प्रकारों की अवधारणा आयी है। शिवशर्मसूरि की कर्म-प्रकृति के पश्चात् चन्द्रऋषिकृत पञ्चसंग्रह के बन्ध द्वार के उदय निरूपण में कुछ पाठभेद के साथ यह अवधारणा प्राप्त होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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