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________________ जैनागम में भारतीय शिक्षा के मूल्य दुलीचन्द जैन 'साहित्यरत्न पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के दुष्परिणाम हमारे देश को स्वतन्त्र हुए अर्द्धशताब्दी व्यतीत हो चुकी है और सन् १९९७ में हमने इसकी स्वर्ण जयन्ती मनायी थी। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि इतने वर्षों के बाद भी हमने भारतीय शिक्षा के जो जीवन-मूल्य हैं उनको अपनी शिक्षा-पद्धति में विनियोजित नहीं किया। हमलोगों ने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली को ही अपनाया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक ओर देश में शिक्षण संस्थाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिनमें करोड़ों बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, वहीं जीवन-उत्थान के संस्कार हमारे ऋषियों, तीर्थङ्करों एवम् आचार्यों . ने जो प्रदान किये थे, वे आज भी हम अपने बच्चों को नहीं दे पा रहे हैं। एक विचारक ने ठीक ही कहा है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली न 'भारतीय' है और न ही वास्तविक 'शिक्षा'।' भारतीय परम्परा के अनुसार शिक्षा मात्र सूचनाओं का भण्डार नहीं है, शिक्षा चरित्र का निर्माण, जीवन-मूल्यों का निर्माण है। डॉ० अल्तेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ में लिखा है- 'प्राचीन भारत में शिक्षा अन्तोति और शक्ति का स्रोत मानी जाती थी, जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों के सन्तुलित विकास से हमारे स्वभाव में परिवर्तन करती और उसे श्रेष्ठ बनाती है। इस प्रकार शिक्षा हमें इस योग्य बनाती है कि हम एक विनीत और उपयोगी नागरिक के रूप में रह सकें।' स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अनेक समितियों एवं शिक्षा आयोगों ने भी इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार किया और इस बात पर जोर दिया कि हमारे राष्ट्र के जो सनातन जीवन मूल्य हैं, वे हमारी शिक्षा पद्धति में लागू होने ही चाहिए। सन् १९६४ से १९६६ तक डॉ० दौलत सिंह कोठारी, जो एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे, की अध्यक्षता में कोठारी आयोग का गठन हुआ। इसने अपने प्रतिवेदन में कहा'केन्द्रीय व प्रान्तीय सरकारों को नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रबन्ध अपने अधीनस्थ संस्थाओं में करना चाहिए।' सन् १९७५ में एन०सी०ई०आर०टी० ने अपने प्रतिवेदन में कहा- “विद्यालय पाठ्यक्रम की संरचना इस ढंग से की जाये कि चरित्र निर्माण शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य बने।' हमारे स्थायी जीवनमूल्य हमारे संविधान में 'धर्मनिरपेक्षता' को हमारी नीति का एक अंग माना गया है। * सचिव, जैन विद्या अनुसन्धान प्रतिष्ठान, चेन्नई. Jain Education International ronal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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