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________________ जैनागम में भारतीय शिक्षा के मूल्य : १०१ 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द ही भ्रामक है, क्योंकि भारतीय-परम्परा के अनुसार हम 'धर्म' से निरपेक्ष नहीं रह सकते। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ मात्र इतना ही हो कि राज्य किसी विशेष धर्म का प्रचार नहीं करे, तब तक तो ठीक है, लेकिन इसका अर्थ धर्म से विमुख हो जाना कदापि नहीं है। हमारे देश में प्राचीनकाल से ही तीन धर्मों की धाराएं मुख्य रूप से बहीं- वैदिकधर्म, जैनधर्म और बौद्धधर्म। बाद में सिक्खधर्म भी प्रारम्भ हुआ। इन चारों धाराओं ने कुछ ऐसे नैतिक व आध्यात्मिक मूल्य स्थापित किये, जिन्हें सनातन जीवन-मूल्य कह सकते हैं और वे प्रत्येक मानव पर लागू होते हैं। उनका हमारी शिक्षा प्रणाली में विनियोजित होना अत्यावश्यक है। भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वय प्राचीन आचार्यों ने विद्या का स्वरूप बताते हुए कहा है- “सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् विद्या वह है जो हमें विमुक्त करती है। विद्या किस चीज से विमुक्त करती है, तो कहा गया कि हममें जो तनाव की स्थिति है, दुःख की स्थिति है, आकुलता और व्याकुलता है, वे सब चाहे शारीरिक स्तर पर हों या मानसिक स्तर पर, उनसे मुक्त कराने वाला साधन विद्या ही है। जैन भावना के अनुसार हम कह सकते हैं कि हमें तृष्णा, अहङ्कार, राग और द्वेष से मुक्ति चाहिए। इसलिए हमारे देश के ऋषियों, मुनियों और आचार्यों ने सहस्रों वर्षों से विद्या के सही संस्कारों का सारे देश में प्रचार-प्रसार किया। ये संस्कार इस देश की सम्पदा तथा अनमोल धरोहर हैं। प्राचीनकाल में विद्या के दो भेद कहे गये- विद्या और अविद्या। अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है, अविद्या का अर्थ है भौतिक ज्ञान और विद्या का अर्थ है आध्यात्मिक ज्ञान। जिस प्रकार से साइकिल दो पहियों के बिना नहीं चल सकता है, वैसे ही विद्या और अविद्या दोनों का संयोग नहीं हो तो जीवन की गाड़ी भी नहीं चल सकती है अर्थात् भौतिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी आवश्यक है। भगवान् महावीर के जीवन सन्देश पर प्रकाश डालते हुए आचार्य विनोबा भावे (जो सर्वोदय के प्रणेता तथा महान् शिक्षाशास्त्री थे) ने कहा कि जीवन में शान्ति प्राप्त करने का एक महान् सूत्र महावीर ने दिया था। वह सूत्र है- “अहिंसा विज्ञान मानव जाति का उत्थान तथा अहिंसा-विज्ञान मानव जाति का विध्वंसा' कहने का अर्थ है कि हमारे यहाँ पर भौतिक ज्ञान की अवहेलना, उपेक्षा नहीं की गयी; किन्तु उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को भी अपनाने पर जोर दिया गया। जैन आचार्यों ने शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए अध्यात्म विद्या पर बहुत जोर दिया और उसे महाविद्या की संज्ञा प्रदान की। ऋषिभासितसूत्र में आया है इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा। जं विज्ज साहइत्ताणं, सव्वदुक्खाण मुच्चती।। जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। आयाभावं च जाणाति, सा विज्जा दुक्खमोयणी।।"२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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