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________________ जैन दर्शन में परमात्मा का स्वरूप एवं स्थान : ९९ और औपनिषदिक चिन्तन, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का सामान्य लक्षण और इनका पारस्परिक सम्बन्ध तथा जैनदर्शन में परमात्मा के स्थान की व्याख्या की गयी है। इस अध्याय में हमने यह दिखाने का प्रयास किया है कि न्याय-वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त में जिसे 'आत्मा' और सांख्ययोग में जिसे 'पुरुष' कहा गया है, वही तत्त्व जैनदर्शन में 'आत्मा' या 'जीव' कहलाता है। इस आत्मा के तीन भेद हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। इन्द्रियाँ बहिरात्मा हैं, आत्मा का सङ्कल्प अन्तरात्मा है और कर्मरूपी कलङ्क से रहित आत्मा, परमात्मा कहलाता है। वह परमात्मा मलरहित है, कला- अर्थात् शरीर से रहित है, अतीन्द्रिय है, केवल है, विशुद्धात्मा है, परमेष्ठी है, परम जिन शिवशङ्कर है तथा शाश्वत और सिद्ध है। तृतीय अध्याय- इस अध्याय में परमात्मा का स्वरूप एवं प्रकार, अनन्तचतुष्टय का स्वरूप एवं प्रकार, तीर्थङ्कर की अवधारणा, तीर्थङ्कर की विशेषताएँ, तीर्थङ्कर बनने सम्बन्धी साधना, तीर्थङ्कर के प्रतिहार्य (अष्ट प्रतिहार्य),३४ अतिशय, वचनातिशय के ३५ प्रकार, सिद्ध के प्रकार, विभिन्न दृष्टियों से सिद्धों की विवेचना तथा सिद्ध आत्माओं का निवासस्थान सिद्धशिला आदि का विवेचन है। इस अध्याय में यह दिखाने का प्रयास है कि वह परमात्मा विशुद्धात्मा है, अर्थात् उनका आत्म-स्वभाव कर्ममल कलङ्क से रहित होने के कारण अत्यन्त शुद्ध है। इन्द्र, धरणेन्द्र, नरेन्द्र और मुनीन्द्रों के द्वारा वन्दित परम उत्कृष्ट पद में स्थित होने से परमात्मा परमेष्ठी कहलाता है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु के भेद से परमेष्ठी के पाँच भेद हैं। परमात्मा उन्हीं पञ्चपरमेष्ठी रूप है। चतुर्थ अध्याय- इस अध्याय में हमने जैनदर्शन में ईश्वरवाद की समीक्षा, प्राचीन जैनागमों में ईश्वर के सृष्टि अकर्तृत्व, दार्शनिक ग्रन्थों में ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व की समीक्षा, ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व को अस्वीकार करके भी जैनों ने आराध्य और उपास्य के रूप में परमात्मा की अवधारणा को स्वीकार किया यह बताने का प्रयास किया है तथा अवतारवाद, उत्तारवाद (उत्थानवाद) आदि की विस्तृत चर्चा की है। इसमें हमने यह दिखाने का प्रयास किया है कि जैनदर्शन में आत्मा की परम विशुद्ध अभिव्यक्ति ही ईश्वर है। जैनदर्शन में किसी ईश्वर विशेष का उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु प्रत्येक आत्मा विराट् शक्ति का देदीप्यमान पुञ्ज है, और वही ईश्वर या परमात्मा है। जैनदर्शन सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं मानता, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार सृष्टि अनादि है। पञ्चम अध्याय : उपसंहार- इस अध्याय में समस्त शोधप्रबन्ध की समीक्षा प्रस्तुत है और यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि जैनदर्शन में परमात्मा का एक प्रमुख स्थान है। साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों में वर्णित परमात्मा के स्वरूप से कई सन्दर्भो में भिन्न भी है। आत्मा या स्व की परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठा जैनदर्शन की अपूर्व देन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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